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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
सखि, व्रजलीला के अतिरिक्त श्रीश्यामसुन्दर के विप्रयोग ताप में ये तरु, लता झुलसते क्यों नहीं, इन्होंने एक बार ही नेत्र भर के उन त्रिभुवनसुन्दर का ऐसा दर्शन पाया है कि वह रूपमाधुरी इनकी चक्षुओं में सदा के लिये बस गयी है, ओझल ही नहीं होती। इन्हें उस कमनीयता का स्थायीभाव प्राप्त हो गया है। ये उस रूपमाधुरी की लोकोत्तरता पर-आश्चर्यकारिता पर मुग्ध हो रहे हैं- स्तब्ध हो रहे हैं। सखि, तब हमें ये क्या जवाब दें, क्या बतायें? इस प्रकार श्रीव्रजसीमन्तिनी अपने प्राणवल्लभ श्रीश्यामबिहारी को वृक्षों कसे पूछती, वन से वन में भटकती फिर रही हैं। कण्टकाकीर्ण गर्तों में, अनुकूल-प्रतिकूल भूमि में घूम रही हैं। उन्हें मार्ग-विमार्ग का ज्ञान नहीं है। देह का अनुसन्धान नहीं है। इनकी प्रेमोन्माद में ऊर्मिमाली समुद्र की-सी स्थिति हो रही है। उसमें जैसे ज्वारभाटे आते हैं, इन्हें भी कभी कुछ स्मरण-अनुसन्धान हो आता है? कभी भी नहीं। परन्तु श्रीभगवान की योगमाया उनके साथ है; वह उनकी रक्षा कर रही है। उन्हें कष्टों से बचा रही है। उनकी सेवा के लिये वह तत्पर है। अन्तरंग दृष्टि से भी यह तो वृन्दावन धाम है, यहाँ कष्ट कैसा? किन्तु प्रेमियों की कितनी दुरवस्था होती है- यह टीकाकार कल्पना करते हैं। यह इसलिये कि साधकों को आश्वासन मिलें, सहारा मिले। साधारणों की कौन कहे, ये व्रजदेवियाँ प्रेमपथिकों की परमाचार्या हैं। ये बतलाती हैं- देखो, प्राणधन को ढूँढने में कितना क्लेश है, कहीं पाषाणों, वृक्षों से टकराते हैं। ऐसे ही भावुक भी अपने को जीवन-मरण के संशय में डाले बिना अभीष्ट तत्त्व नहीं प्राप्त कर सकता- ‘न संशयमनारुह्य नरो भद्राणि पश्यिति। संशयं पुनरारुह्य यदि जीवति पश्यति।। बड़े-बड़े सम्राट, स्वराट विराट ऐसे ही ढूँढने से मिलेंगे। कोई भी काम प्राणों की बाजी लगने से ही सिद्ध होगा। यह भाव दिखलाने के लिये ही टीकाकार इतनी बातें कहते हैं। ‘आनन्दवृन्दावनचम्पू’ में कहा है। जहाँ-जहाँ विषम स्थानों में व्रजांगना घूमती हैं, वहाँ उनके परमानुरागवश कठोर-तीक्ष्ण कण्टक भी कोमल-कुसुम हो जाते हैं, जैसे श्रीभगवद्दर्शन से, वज्र से भी कठोर वस्तु कोमल हो जाती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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