महाभारत कथा -अमृतलाल नागर
जुए में पराजय
शकुनि मामा ने पांसे फेंके, और फेंकते ही चिल्ला पड़े- "मैं जीत गया, मैं जीत गया!" एक बड़े राज्य की हार-जीत का फैसला जुए के एक दांव में ही हो गया। राजे-महाराजों की तरह से जो पाण्डव लाखों के रत्नाभूषण पहन कर आये थे, वे अब मृगछाला पहनकर वहाँ से बाहर जा रहे थे। उनको चलते देखकर दुःशासन ने बड़े घमण्ड से कहा- "अब हमारे महाराज दुर्योधन ही इस पृथ्वी के चक्रवर्ती राजा है। जो लोग हमारी उन्नति में कांटे थे, वे भिखारी बनकर वनवास भोगने जा रहे हैं। बहुत दिनों के बाद अभिमानी पाण्डव दु:ख और विपत्ति के नरक में ढकेले जा सके हैं। हाः हाः हाः।" जीत के गर्व में मतवाले दुर्योधन ने सिंहगति से जाने वाले भीमसेन की नकल में उनके पीछे-पीछे मटक कर चलना आरम्भ कर दिया। सब लोग हंस पड़े। भीम ने भी मुड़कर दुर्योधन का यह मटकना देखा। उन्होंने क्रोध में गरजकर कहा- "घबरा मत दुर्योधन! एक दिन तेरे और तेरे साथियों की यह सारी चटक-मटक का अन्त मेरे ही हाथों से होगा।" अर्जुन अपने बड़े भाई को समझाते हुए बोले- "भाई समय आने पर जो करना हो वह कीजियेगा, अभी तेरह वर्ष इन्हें गुलछर्रे उड़ा लेने दीजिए। चौदहवां वर्ष फिर हमारा होगा।" पाण्डव लोग हस्तिनापुर से चलते समय अपने चाचा धृतराष्ट्र से विदा लेना न भूले। उन्होंने विदुर जी से भी भेंट की। विदुर जी ने उन्हें आशीर्वाद दिया और कहा- "तुम्हारा भला हो। कुल देवता तुम्हें निरोग रखे। हे युधिष्ठिर! आपत्ति आने पर धैर्यपूर्वक यदि अपने कर्तव्य पर विचार करोगे तो तुम्हें दुख में भी अपार सुख मिलता रहेगा।" |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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