महाभारत कथा -अमृतलाल नागर
जुए में पराजय
महाराज धृतराष्ट्र के यह कहते ही कौरव हाथ मलने और दांत पीसने लगे। लेकिन द्रौपदी ने खड़े होकर भरी सभा में कहा- "यह मेरे केश, जिन्हें खींचकर दुःशासन ने मुझे महल से उठाया था, अब तब तक यों ही खुलें रहेंगे जब तक इस दुष्ट के कलेजे के खून से यह धोये न जायेंगे।" द्रौपदी की इस प्रतिज्ञा को सुनकर भीम एकाएक गरज उठे, उन्होंने कहा- "भरोसा रखो पाञ्चाली! इस दुःशासन के लहू से तुम्हारे केश धुलेंगे और दुर्योधन ने जो तुम्हारा अपमान किया है, उसका भी बदला अवश्य लूंगा। मैं कौरवों की सभा में यह प्रतिज्ञा करके जाता हूँ।" सभा सन्न रह गई। किसी के मुंह से एक बोल तक न निकला। पाण्डव लोग सकुशल सभामण्डप से बाहर चले आए और उसी दिन अपने आदमियों के साथ इन्द्रप्रस्थ लौट गए। सभा के भंग होने पर दुर्योधन, दुःशासन, शकुनि मामा आदि जब अकेले में बैठे तो पछतावे के मारे आपस में अपने जी की जलन को नौ-नौ बांस उछाल कर झलकाने लगे। हर कौरव को उस समय अपने पितामह पर बड़ा क्रोध आ रहा था। सभी अपने बाप को कोस रहे थे कि अंधे को तनिक भी बुद्धि नहीं है और यह विदुर, भीष्म और द्रोणाचार्य जैसे बूढ़े खूसट लोग भी हमारा नमक खाकर हमारा ही विरोध करते हैं। शकुनि मामा बोले- "अजी, इस भीष्म को मैं कुछ भी नहीं समझता, सारी मूर्खता की जड़ हमारे जीजा ही हैं। मैं ऐसी चालाकी से पांसे पलट देता था कि किसी को पता तक न चल सका, पर वह सारी चालाकी धरी रह गई। किए कराये पर पानी फिर गया।" पाण्डवों के इन्द्रप्रस्थ लौट जाने के बाद दुर्योधन दिनों दिन दुबला और उदास होता गया। न वह ठीक तरह से खाता था, न सैर-शिकार में ठीक तरह से मन लगा पाता था और न इसका नाच, रंग, राज-पाट आदि में मन लगता था, सब लोग महाराज धृतराष्ट्र के पास जाकर कहते कि युवराज तो दिनों-दिन चले जा रहे हैं। उनकी दशा आंखों से नहीं देखी जाती। राजा सुनते-सुनते घबरा उठे। उन्हें दिन-रात यह भय सताने लगा कि कहीं मेरा बेटा यों ही दुख में घुल-घुल कर मन न जाय। बेटे की ममता ने धृतराष्ट्र के मन की आँखें भी फोड़ दीं। उन्होंने दुर्योधन से पूछा- "तुम चाहते क्या हो बेटे, मैं तुम्हारी इच्छा पूरी करूंगा। तुम अपनी यह उदासी छोड़कर मुझसे अपने मन की बात खोल कर कहो।" |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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