भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
‘ताः’ का तात्पर्य ‘तदात्मिकाः’ अर्थात भगवद्रूपा भी हो सकता है, क्योंकि भगवान का रमण और रमण सामग्री जो कुछ भी होगा अप्राकृत ही होगा; प्राकृत पदार्थों से उनका रमण होना असम्भव है। जैसे वृन्दावन भगवद्रूप है वैसे ही वहाँ की रात्रियाँ भी भगवद्रूपा हैं। वे रात्रियाँ कैसी हैं? ‘शरदोत्फुल्लमल्लिका’- ‘शरदायामपि उत्फुल्लानि मल्लिकोपलक्षितानि अशेषपुष्पाणि यासु ताः।’
उसी प्रकार इस समय मानो सभी पुष्पों ने यही सोचा था कि हमारी शोभा और सुगन्ध की सार्थकता इसी में हैं कि हम श्रीभगवान की प्रसन्नता सम्पादन करने में समर्थ हो सकें। जहाँ सारी प्रकृति अपनी प्रजाओं के साथ प्रभु की सेवा में उपस्थित होना चाहती है वहाँ ये पुष्पादि उद्दीपन विभाव भी प्रभु की प्रसन्नता सम्पादन करने को उत्सुक हो रहे हैं। अतः मानों अपनी सार्थकता के लिये ही वे भावोद्दीपन में सहायक हो रहे हैं। ऐसी रात्रियों को देखकर भगवान ने रमण करने को मन किया। अर्थात उचित काल और उद्दीपन सामग्री देखकर ही भगवान ने अपनी प्रियतमाओं के साथ रमण करने के लिये उनका स्मरण किया। यहाँ ‘वीक्ष्य’ शब्द से साभिलाष दर्शन अभिप्रेत है, क्योंकि ये सब सामग्रियाँ भावोद्दीपन करने वाली थीं। अतः इसका यह तात्पर्य भी हो सकता है- ‘शरदोत्फुल्लमल्लिका रात्रीः ताश्च वीक्ष्य।’ अर्थात शरदोत्फुल्लमल्लिका रात्रियों को और उन्हीं के द्वारा प्रियतमा गोपांगनाओं को देखकर (उन्होंने रमण करने को मन किया) |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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