भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
किन्तु यदि यह ब्रह्मसंस्पर्श बाह्यस्पर्शों के समान क्षणिक ही हुआ तो इसमें विशेषता ही क्या हुई। भगवत्सम्मिलन कभी अस्थायी नहीं हुआ करता; भगवान की प्राप्ति हो जाने पर तो फिर पुनरावृत्ति ही नहीं होती ‘मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते’। इसी दृष्टि से भगवान ने एक रात्रि में ही अनन्त ब्राह्म रात्रियों का समावेश करके उन्हें अगणित रात्रियों का अनुभव कराया। ‘रात्रीः’ शब्द का अर्थ निशा तो है ही, किन्तु इसके सिवा इसका दूसरा तात्पर्य भी हो सकता है। ‘रा दाने’ इस कोश के अनुसार ‘रा’ धातु का अर्थ ‘देना’ है, उसमें ‘तृन्’ प्रत्यय जोड़ने पर ‘रात्री’ शब्द सिद्ध होता है, जिसका अर्थ ‘देने वाली’ है। अर्थात गोपांगनाओं को अभीष्ट भगवान श्रीकृष्णचन्द्र का सौन्दर्य-समास्वादन, उसे देने वाली रात्रियाँ। ‘रात्रीः’ शब्द के पहले जो ‘ता’ विशेषण है वह उन रात्रियों की विलक्षणता द्योतित करता है। ‘ताः रात्रीः’ अर्थात जिनके चरणों का आश्रय लेने वाले योगीन्द्र-मुनीन्द्रों को भी अपने अभीष्ट तत्त्व की प्राप्ति होती है, उन्हीं गोपांगनओं की अभिलाषाओं को पूर्ण करने वाली होने के कारण वे रात्रियों विलक्षण थीं ही। यह दानशीला रात्रियाँ इसलिये अत्यन्त विलक्षण हैं क्योंकि पात्र और देय के महत्त्व से दान का महत्त्व होता है। श्रीव्रजांगना जैसे सर्ववन्द्य पात्रों के लिये निखिल रसामृतमूर्ति श्रीकृष्ण तत्त्व का प्रदान करने वाली हैं और श्रीकृष्ण जैसे परमपावन पात्र के लिये उन श्रीवृषभानुनन्दिनी का प्रदान किया, जिनके लिये श्रीकृष्ण उत्सुक और लालायित थे। अन्न, वस्त्र, रत्न, भूमि आदि समस्त दानों से ब्रह्मदान सर्वोत्कृष्ट है, समस्त पात्रों में ब्रह्मवित ही सर्वश्रेष्ठ पात्र है। इसके सिवा जो अधिकारी भी हो और जिसके लिये लालायित हो उसके लिये उस वस्तु का दान बहुत प्रशस्य होता है। यहाँ व्रजांगना सर्वोत्कृष्ट पात्र हैं और श्रीकृष्ण रस के लिये उत्कण्ठित हैं। अतः उन्हें श्रीकृष्ण जैसे दिव्यरस का प्रदान करने वाली वे रात्रियाँ धन्य हैं। उनसे भी उत्कृष्ट पात्र सर्वाराध्य श्रीकृष्ण हैं और वे श्रीरासेश्वरी-सम्मिलन के लिये लालायित भी हैं। अतः उनके लिये भी यह दान महत्त्व का है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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