भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
‘ता’ अर्थात ‘स्वस्वरूपभूता व्रजांगनाः।’ इनके दो भेद हैं-एक तो वे जो नित्यसिद्धा हैं और दूसरी वे जो भृंगीकीट-न्याय से भगवद्रूपा हो गयी थीं। जिस प्रकार कीट भृंगी से व्यतिरिक्त होने पर भी भावनातिशय के कारण भृंगीरूप हो जाता है, उसी प्रकार ये गोपांगनाएँ स्वरूपतः भगवान से भिन्न होने पर भी अनुरागातिशय के कारण भगवद्रूपा हो गयी थीं। वे कहाँ थीं ‘मनःसमुपस्थितः मनसो गोचरीभूताः’ अर्थात वे भगवान की मानसिक दृष्टि के सामने थीं! उन्हें दयार्द्र दृष्टि से देखकर भगवान ने रमण की इच्छा की। इसके सिवा ‘ताः’ शब्द बहुवचनान्त होने के कारण ‘तत्’ पद से निर्दिष्ट होने योग्य अनन्त पदार्थों का वाचक हो सकता है। हम ‘ताश्च ताश्च ताश्च ताः’ इस प्रकार ‘ताः’ पद से कही जाने वाली तीन प्रकार की गोपांगनाओं का विचार करते हैं। इनमें पहले ‘ताः’ से श्रुतिरूपा मुनिचरी और अन्य समस्त साधनसिद्धा गोपांगनाएँ कही गयीं हैं। उनमे भी जो श्रुतिरूपा गोपांगनाएँ वाच्य-वाचक के अभेद रूप से ब्रह्मरूपा ही हैं वे दूसरे ‘ताः’ से ग्रहण की जाती हैं। ऊँकार मूलवाचक है, उसका वाच्य परब्रह्म है। समस्त वाङ्मय ऊँकार का विकार है और सारा प्रपंच ब्रह्म का कार्य है। अतः ऊँकार का विकारभूत समस्त वाङ्मय ब्रह्म के कार्यभूत सम्पूर्ण प्रपंच का वाचक है। वाच्य और वाचक का अभेद हुआ करता है; इसलिये समस्त वाङ्मय भी वस्तुतः ब्रह्मरूप ही है। इसके सिवा श्रुतियों के अवान्तर तात्पर्य अन्य होने पर भी उनका प्रधान तात्पर्य तो ब्रह्म में ही है। शब्द से दो बातों का बोध हुआ करता है- जाति और व्यक्ति। त्वतलादि प्रत्ययवेद्य जाति भावरूप ही होती है। ‘तस्य भावस्त्वतलौ’ इस पाणिनि-सूत्र के अनुसार घट की भावरूप जाति ही घटत्व है, वह वस्तुतः एक भाव-विशेष में स्थित मृत्तिका ही है। इस प्रकार घट का वाचक ‘घट’ शब्द भी मूलतः उसके कारण मृत्तिका का ही बोधन करता है। इसी प्रकार जितने शब्द हैं वे सब अपने अभिधेय विभिन्न पदार्थों के मूल कारण परब्रह्म के ही वाचक हैं। अतः अवान्तर श्रुतियों का भी मुख्य तात्पर्य तो परब्रह्म में ही है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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