भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
‘भगवानपि रन्तुं मनश्चक्रे’- भगवान ने भी रमण करने के लिये मन किया-यह बात उनके औत्सुक्यातिशय का द्योतन करती है। अर्थात भगवान को रमण करने की ऐसी उत्सुकता हुई कि उन्होंने मन बना डाला; वस्तुतः तो वे ‘अप्राणो ह्यमना शुभ्रः’ ही थे। किन्तु रमण तो बिना मन के हो ही नहीं सकता। भगवान का रमण क्या था? यही न कि अपने सौन्दर्य-माधुर्य को गोपांगनाओं की इन्द्रियों से उपभोग करना और गोपांगनाओं के सौन्दर्य-माधुर्यातिशय को अपनी इन्द्रियों से भोगना। परन्तु यदि भगवान सजातीय, विजातीय एवं स्वगत भेद से रहित हों तो यह भोग कैसे बन सकता है? उसका मुख्य साधन तो मन है। इसी से गोपांगनाओं के सौन्दर्य-माधुर्यादि गुणों का समास्वादन करने के लिये भगवान ने मन बनाया। यदि कहो कि उन्होंने भक्तों पर अनुग्रह करने के लिये ही मन बनाया था तो यह ठीक नहीं, क्योंकि यहाँ ‘चक्रे’ इस क्रिया में आत्मनेपद है। आत्मनेपद वहीं हुआ करता है जहाँ क्रिया का फल अपने लिये होता है। जहाँ क्रिया फल दूसरे के लिये होता है वहाँ परस्मैपद हुआ करता है। इसलिये यदि भगवान का यह कर्म भक्तों के लिये होता तो यहाँ ‘चक्रे’ के स्थान में ‘चकार’ होता। परन्तु भगवान को रमण की उत्सुकता होना तो सर्वथा असम्भव है। क्योंकि ‘भगवान’ तो कहते ही उसे हैं जिसमें ऐश्वर्य, ज्ञान एवं वैराग्यादि की निरतिशयता हो। इस प्रकार जिसमें नित्य और निरतिशय ऐश्वर्यादि हैं और जो अपने नित्यस्वरूप में सर्वथा तृप्त है उसे ऐसी रमणेच्छा होना तो अनुपपन्न ही है। इस अनुपपत्ति को सूचित करने के लिये ही यहाँ ‘अपि’ शब्द दिया है। अर्थात यद्यपि ऐसा करना था तो अयुक्त ही, परन्तु ऐसा हो ही गया। इसका अनौचित्य हम भी स्वीकार करते हैं। यह गोपांगनाओं के सौभाग्यातिशय की ही महिमा है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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