भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
यदि कहो कि स्वरूप से तो सभी जीव आप्तकाम हैं- वेदांत सिद्धांतानुसार तो जितना भोक्तृ-भोग्य वर्ग है सब ब्रह्म ही है; परंतु जीव तो रमण करने की इच्छा करता ही है। परमात्मा से विमुख होने के कारण इसका ऐश्वर्य तिरोहित हो रहा है, भगवदुन्मुख होने पर उसका ऐश्वर्य अभिव्यक्त हो जाता है। ब्रह्मादि भी तो वस्तुत: जीव ही हैं। अत: यदि भगवान ने भी रमण की इच्छा की तो क्या आश्चर्य है? तो ऐसा कहना कठिन नहीं, क्योंकि उनमें 'भग' है। उनमें समग्र ऐश्वर्य है, समग्र ज्ञान है, समग्र वैराग्य है और समग्र श्री है। जिनमें ऐश्वर्य एवं ज्ञानादि की कमी होती है। उन्हीं में वासना होनी सम्भव है। किंतु जिसमें इनकी पूर्णता है उसमें किसी प्रकार की वासना का प्रादुर्भाव होना सम्भव नहीं मालूम होता। इसके सिवा 'भगवान' का एक दूसरा लक्षण भी है-
अर्थात जो उत्पत्ति, नाश, आना, जाना तथा ज्ञान और अज्ञान को जानता है उसे 'भगवान' कहना चाहिये। अत: जीव और भगवान में तो बड़ा अंतर होता है। इसी से माना गया है कि जीव ब्रह्म तो हो जाता है, परंतु भगवान[1] नहीं हो सकता, क्योंकि स्वरूपत: निर्विशेष ब्रह्म से तो उसका अभेद है ही किंतु निरितशय ऐश्वर्य तो केवल ईश्वर में ही है, यह उसमें नहीं हो सकता। संसार में दो ईश्वर नहीं हो सकते हैं। अत: भगवान ने रमण करने की इच्छा क्यों की, यह प्रश्न तो खड़ा ही रहता है। देखो, एक ही पदार्थ के लिये पकंज, जलज, अरविंद एवं कमल आदि कई शब्दों का प्रयोग होता है। उसके ये नाम गुण विशेषों की अपेक्षा से है। जैसे तापापनोदक रूप से उसे 'जलज' कहेंगे तथा उद्भवस्थान से वैलक्षण्य प्रदर्श्ति करना होगा तो पकंज कहेंगे। इसी प्रकार अन्य शब्दों के प्रयोग के विषय में समझो। यही बात भ्रमर, मधुप, मधुकर, अलि एवं षट्पद आदि शब्दों के विषय में भी कही जा सकती है। ये भी यद्यपि एक ही व्यक्ति के वाचक हैं तथापि 'भ्रमर' शब्द से उसकी अस्थिरता का द्योतन होता है और 'मधुप' शब्द से मिष्टप्रियता का। इसी तरह यद्यपि भगवान ब्रह्म एवं परमात्मा स्वरूपत: तो एक ही है, परंतु इन शब्दों से उसके विशेष-विशेष पक्षों का द्योतन होता है। यहाँ 'भगवान' शब्द अवश्य रमण के साथ विरोध प्रदर्शन के लिये ही है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ यहाँ 'भगवान् शब्द परम-ऐश्वर्यशाली परमेश्वर का बोधक है।
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