विषय सूची
भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
सर्वसिद्धान्त-समन्वय
“रामं सीतापतिं विद्धि” इत्यादि स्थलों में भी ज्ञात राम को उद्देश्य कर अज्ञात सीतापतित्व विधेय है। यहाँ भी दो में एक को उद्देश्य कर एक को विधेय मानना चाहिये। क्षेत्रज्ञ यदि ईश्वर रूप से प्रसिद्ध है तो उसे ईश्वरतत्त्व विधान व्यर्थ है, यदि अप्रसिद्ध है तो भी ईश्वरत्त्व विधान निष्प्रयोजन है। ईश्वर को क्षेत्रज्ञातृत्व विवक्षित हो तो भी “एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्धिदः” इत्यादि वचनों से क्षेत्रज्ञ पृथक निर्देश व्यर्थ होगा। क्योंकि क्षेत्रज्ञाता को सीधे ईश्वर बतलाया जा सकता था। फिर क्षेत्रज्ञ संज्ञा निर्धारण कर परम्परा से ईश्वरतत्त्व कहना सर्वथा अपार्थक है। सर्वज्ञ को क्षेत्रज्ञ मात्र कथन प्रतिकूल ही है। क्षेत्रज्ञ शब्द से यदि परमेश्वर कहा गया, तब जीव का स्वरूप पृथक दिखलाना चाहिये। भोग्यवर्ग-प्रतिपादनानन्तर भोक्तृवर्ग का निरूपण ही संगत होने से भोक्तृवर्ग को लंघन कर नियन्ता का प्रतिपादन भी असंगत है। इस वास्ते “सर्व खल्विदं ब्रह्म तज्जलान्” इत्यादि श्रुति के अनुसार प्रसिद्ध क्षेत्र तथा उसके ज्ञाता को अनुवाद कर यथायोग्य बाध सामानाधिकरण्य या मुख्य सामानाधिकरण्य से परमात्मत्व-विधान ही भगवान को अभिप्रेत है। अत: ‘पैगी रहस्य’ श्रुति भी “अथ योऽयं शारीर उपद्रष्टा स क्षेत्रज्ञ” इत्यादि वचनों से शारीर अर्थात शरीराभिमानी जीव को ही क्षेत्रज्ञ बतलाती है। यदि शारीर शब्द का अर्थ भी “शरीरे भवः” इस व्युत्पत्ति से परमेश्वर मानें तो शरीर में होने वाला व्यापक आकाश भी शारीर पद से कहा जा सकता है। पर यह लोकाऽप्रसिद्ध है। अतः ठीक नहीं। सारांश यह निकला कि अद्वैत सिद्धान्त सर्वाऽविरुद्ध एवं भगवान और उनके भक्तों को सर्वथा अभिमत है। अतः सोपानारोहक्रम से सभी सिद्धांत उक्त सिद्धांत के अनुकूल हैं। कोई-कोई महानुभाव यह भी कहते हैं कि उक्त अद्वैत सिद्धान्त में सगुण भगवान भी व्यावहारिक या मिथ्या तत्त्व हैं, तब मिथ्या तत्त्व में अनुरक्ति कैसे संभावित हो सकती है? परन्तु विचार करने से यह कथन निर्मूल है। जैसे प्राची दिक्सम्बन्ध से पूर्णचन्द्र का सम्यक् प्रादुर्भाव होता है, वैसे ही परम विशुद्ध अनिर्वाच्य दिव्य शक्ति के सम्बन्ध से परमत्तव का दिव्य मंगलमय विग्रह रूप में प्रादुर्भाव होता है। व्यावहारिक कहने का भी अर्थ अलीक या रज्जुसर्प के समान नहीं हो सकता, जैसे पार्थिवत्व अंश में बराबर होते हुए भी हीरकादि में महद् वैषम्य है एवं व्यावहारिकत्व अंश में बराबर होते हुए भी विष अमृत में महान भेद है। ठीक इसी तरह जगदुपादानभूता मायाशक्ति तथा भगवान के मंगलमय विग्रह रूप में विकास निमित्तभूत विशुद्ध शक्ति में महान प्रभेद है। जैसे मेघादि अस्वच्छ पदार्थ के सम्बन्ध से यद्यपि सूर्यस्वरूप समावृत है परन्तु विशुद्ध काँचादि के योग से सूर्यस्वरूप समावृत न होकर प्रत्युत अधिक विशुद्ध रूप में प्रकट होता है। ठीक वैसे ही अचिन्त्य विशुद्ध शक्ति के योग से परमतत्त्व का स्वरूप समावृत भी नहीं होता। प्रत्युत आत्माराम मुनीन्द्रों के भी चित्त को आकर्षण करने वाले दिव्य स्वरूप में प्रकट होते हैं। इतना भेद अवश्य है कि अद्वैत सिद्धान्ती जहाँ एक ओर भगवान को अचिन्त्यानन्त समस्त कल्याणगुणगणास्पद मानते हैं वहाँ दूसरी ओर “निर्गुणं, निष्क्रियं, शान्तम्” इत्यादि श्रुतियों के अनुसार सत्ता-भेद से निर्गुण, निष्क्रिय, निष्कल भी मानते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज