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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
सर्वसिद्धान्त-समन्वय
अन्यान्य सिद्धान्ती केवल सगुणतत्त्व को ही मानकर निर्गुण का सर्वथा अपलाप ही करते हैं। अर्थात सगुण को ही प्राकृत गुणगणराहित्य के अभिप्राय से निर्गुण भी कहते हैं। द्वैती लेाग आदित्य तत्त्व के समान सगुण भगवान को मानकर आतप के समान निर्गुण तत्त्व को मानते हैं। अद्वैतियों का कहना है कि गुणादि की आवश्यकता स्वाश्रय में सौख्यातिशय या महत्त्वातिशय सम्पादन के लिये ही हो सकती है। परमतत्त्व अनन्त पद, समभिव्याहृत ब्रह्म पद तथा “एतस्यैवाऽऽनन्दस्य मात्रामुपजीवन्ति” इत्यादि श्रुति से निरतिशय आनन्दस्वरूप स्वतः सिद्ध है। अतः गुणकृत अतिशयताराहित्य तथा निर्गुणत्व श्रुति के अनुरोध से स्वतः निर्गुण तत्त्व में ही गुण स्वतः अपनु गुणत्वसिद्ध्यर्थ भगवत्तत्त्व का समाश्रयण करते हैं। इस वास्ते भगवान स्वरूप से निर्गुण होते हुए भी सगुण कहे जा सकते हैं। “निर्गुणं मां गुणाः सर्वे भजन्ति निरपेक्षकम्।”[1] आदित्यस्थानीय सगुण तत्त्व, आतपस्थानीय निर्गुण तत्त्व देश में यदि अविद्यमान है तब तो परिच्छिन्नता अनिवार्य है। यदि निरतिशय रूप से सर्वत्र परिपूर्ण है तब नामान्तर से निर्गुण परम तत्त्व ही हुआ। क्योंकि अतिशयता की कल्पना जहाँ जाकर स्थगित हो जाती है वहीं निरतिशय प्रज्ञानानन्दघन परमतत्त्व कहलाता है। नाम में कोई विवाद नहीं। यदि शून्यवादी या विज्ञानवादी इसी तत्त्व को शून्य या विज्ञानतत्त्व शब्द से कहते हों तो अद्वैतियों का नाममात्र में कोई विवाद नहीं। यदि “असद्धा इदमग्र आसीत्” इत्यादि श्रुति तथा दार्शनिकों से प्रसिद्ध क्षणिक विज्ञान संतति या तत्क्षयरूप अत्यन्ताऽसत विज्ञान या शून्य मानते हों तो उक्त परम तत्त्व से महान भेद सुस्पष्ट सिद्ध है। अतः उक्त प्रकार से परमतत्त्व स्वरूप से निर्गुण और निरपेक्ष होते हुए भी सगुण तथा साकार है। जैसे प्राची दिक् चन्द्राभिव्यक्ति में, वायु तरंगाभिव्यक्ति में निमित्त मात्र है वैसे ही अचिन्त्याऽनिर्वाच्य परम विशुद्ध शक्ति भी भगवान के सगुण स्वरूप में प्रादुर्भाव के निमित्त मात्र है। जैसे प्राची या वायु स्वयं चन्द्र या तरंग रूप नहीं है वैसे ही विशुद्ध शक्तिमात्र सगुण भगवान नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्री. भा. एका.
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