भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
वेणुगीत
एक कान में कर्णिकार, दूसरे में उत्पल और दक्षिण हस्त में अब्ज (नीला कमल) है अर्थात पहला स्वरूप जो ‘बर्हापीडं नटवरवपुः’ द्वारा वर्णित किया था उसी स्वरूप का इसमें वर्णन है। और भी कुछ-कुछ सामग्री है, इतना ही भेद है। श्री वल्लभाचार्य कहते हैं- यहाँ तीनों से रज, तम, सत्त्व बोधित है अर्थात आम्र पल्ल्व से रज, मयूरपिच्छ से तम और उत्पलाब्जमाला से सत्त्व का सूचन है। इसलिये इनके ही विशेष आकार से आविर्भूत नव रसों का सूचन भी है एवं उद्बुद्ध उभयविध श्रृंगाररसात्म श्रीकृष्णचंद नवरस सम्मिलित हैं, अतएव तत्कृत वैचित्र्य भी है। यही बात "विचित्रवेषौ" से दिखलायी। कह सकते हैं कि तब तो यहाँ विरोध प्रतीत होता है। वहाँ कहा था कि केवल रस ही नाट्य में व्यक्त होता है। संप्रयोग में रसधर्म सहित रसधर्मी व्यक्त होता है। ‘नटवरवपुः’ में यही कहा है। ‘नट’ से विप्रयोगात्मक श्रृंगार और ‘वर’ (दूल्हा) से संप्रयोगात्मक श्रृंगार कहा था, जो नटवत् जहाँ केवल रस है, रस धर्मी नहीं क्योंकि जहाँ सामग्री सहित रस प्रकट है, वहीं धर्म सहित रस धर्मी है। जहाँ सामग्री रहित नट की तरह अभिनय द्वारा सब आरोपित ही आरोपित होते हैं, तथाच सामग्री बिना रस की जहाँ व्यंजना होती है वहाँ केवल रस होता है। परन्तु जहाँ वर (दूल्हा) प्रत्यग्र भोक्ता है वहाँ तो सर्व नायक-नायिका स्पष्ट हैं, सामग्री भी प्रत्यक्ष है। अतः वहाँ धर्म सहित धर्मों का प्राकट्य है। अब यहाँ आम्रपल्लव से स्थायी भाव, मयूरपिच्छ से व्यभिचारी भाव और उत्पलाब्जमाला से अनुभाव दिखलाया। उनमें राग, आसक्ति, व्यसन कहा। उन्हें भाव वृक्ष का अंकुर, कलिका, फूल बतलाया। उसमें रूप, रस, सौरभ का विकास कहा। व्यसन द्वारा निरंतर भोग कहा, जिसमें श्रीकृष्णचंद्र परमानन्दकंद का पूर्णरूपेण आस्वादन बतलाया। जब उत्पलाब्ज विकसित है, तब ही उसका रूप, रस और सौरभ स्थिर है। फिर श्रीकृष्ण संभोग का व्यसन हुआ। ‘अहोरात्रं वासना स्यात्’ यहाँ व्यसन की निरंतरता है और वही व्यसन भी है। जो छूट जाय वह व्यसन नहीं, जिसके बिना रहा न जाय, वही तो व्यसन है। वेद-शास्त्रादि के प्रयत्न करने पर भी जो न छूटे, वह व्यसन है। उसी के आच्छादन के लिये, उसी को छिपाने के लिये परिधान बतलाया। तात्पर्य यह है कि श्रीकृष्ण परमानन्द रागवान, आसक्ति मान और व्यसनवान्, होकर व्यक्त हैं एवं वे रसधर्मी हुए। अब विप्रयोग न रहा, संप्रयोग हुआ। यही संदेह है, इस पर कहते हें कि यह भी अभिनय ही है। यद्यपि एक दृष्टि ऐसी है कि वहाँ वनसुन्दरी आधिदैविकी शक्तियों को पूर्णतम पुरुषोतम श्रीकृष्ण का संप्रयोग रस ही प्राप्त है। वहाँ प्रभु के प्रत्यक्ष रमण करने से। पर व्रजांगनाओं के लिये विप्रयोग ही है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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