भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
वेणुगीत
उत्पलाब्जमाला (रात्रि विकासी-दिवस विकासी कमलमाला) धारण से सत्त्व सूचन करते हैं। पहले से राग का, दूसरे से गाढ़ासक्ति का तथा तीसरे से व्यसन का सूचन है, अर्थात वृषभानुनन्दिनी के मुखचंद के दर्शनचिंतन का- भक्तानुसंधान का व्यसन सूचित करने के लिये उत्पल तथा सौरभ से स्थिर वासना विवक्षित हे। ऐसा उद्बुद्ध उभयविध श्रृंगाररसात्मा श्रीकृष्णचंद्र परमानन्दकंद एवं वृषभानुनन्दिनी-विषयक राग-आसक्ति-व्यसन युक्त तत्त्व व्यक्त हुआ। यही भक्तों के काम का है। नीरस, निर्विकार नहीं। यह रसधर्मी श्रीकृष्ण का स्वरूप व्यक्त है। अथवा इससे रसरूप सौगन्ध्य व्यक्त है। सरस आम्रपल्ल्व से सरसता, बर्हस्तबक से रूप और उत्पलाब्जमाला से सौगन्ध्य सूचित है। यदि ‘रसे रसानंगीकरात्’ इस मत के अनुसार ब्रह्म नीरूपादि हो तो भावुकों के किस काम का? रूप रसादियुक्त होने से सर्वाभोग्या अधरसुधा की लालसावाली व्रजांगनाओं की, रूपभोगियों की और सौगन्ध्यभोगियों की भी उसमें प्रवृत्ति होगी, यह दिखलाना है। ऐसा यह रसात्मक रूप सर्वथा छिपाने की चीज है, इसलिये पीताम्बर से वह ढका हुआ है। अर्थात कपट चातुर्य से राग, आसक्ति, व्यसन छिपाना है। यहाँ पर भाव वृक्ष का राग बीज, आसक्ति कलिका तथा व्यसन फूल कहा है। अर्थात श्यामसुन्दर की सुमधुर अधरसुधापान से व्रजांगनाओं के सस्नेह सरस हृदय में श्रीकृष्ण प्रभु ने वंशी द्वारा भाव बीज बोया। बीज भी किन्हीं देशों में बाँस से बोया जाता है। इसलिये वह बाँस के वंशी से ही बोया। बोते ही वह अंकुरित हुआ, उसमें आसक्ति कली लगी। कली में भी रूप, रस, सौरभ रहते हैं, पर छिपे रहते हैं। इसके बाद जब व्यसन हुआ, तब वह फूल उठा। जब पुष्प विकसित हुआ तब रूप, रस और सौरभ व्यक्त हुए। इस प्रकार व्यसनावस्था (संसार का व्यसन नहीं, वह तो घोर नरक का मूल है) ही भावुक जीवन को सुखमय बना देती है। बिना दर्शन, परिरंभण, अधरामृतपान के न रहा जाय, यह राग, आसक्ति, व्यसन है। यह महाभाग्य की बात है। कोई बर्ह अलग लेते हैं और स्तबक अलग लेते हैं। बर्ह याने मयूरपिच्छ तथा स्तबक याने फूलों के गुच्छे। उत्पलाब्जमाला से यह दिखलाया कि विकसत उत्पल में ही पूर्ण रूप से रस, रूप, सौरभ होते हैं। रस, रूप, सौरभ कलिका में भी होते हैं, पर वह अविकसित हो तो कैसे मालूम पड़े। इसलिये उत्पल अब्ज दोनों लिया। कारण यह है कि रात्रि विकासी दिवस में अविकसित रहता है और दिवस विकासी रात्रि में अविकसित रहता है। यदि एक ही प्रकार हो, तो नैरंतर्येण उनकी प्रतिष्ठा नहीं हो सकती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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