भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
वेणुगीत
सामग्री होते हुए भी नट अभिनय द्वारा साम्रगी व्यक्त करता है। वैसे संप्रयोग न होने पर भी आरोपादि द्वारा उसका प्राकट्य है। अभिनय कहीं शब्दों द्वारा, कहीं कायिक व्यापार द्वारा और कहीं विभिन्न सामग्री-धारण द्वारा होता है। यहाँ प्रभु का सरस श्रृंगारात्मक स्वरूप व्रजांगनाओं में व्यक्त कर उन्हें आंतर रमण कराना है। बाह्य रमण में जितनी सामग्री होती है उतनी ही आंतर रमण में भी अपेक्षित है। अन्तर केवल यह है कि बाह्य सम्बन्ध नहीं होता, इस समय के गोपालगोष्ठी के नटवर वेश का व्रजांगनाएँ आसक्तिवशात् अनुभव कर रही हैं। यहाँ सभा गोपालों की है, पर यह अभिनय वहीं के लिये नहीं, व्रजांगनाओं के लिये भी है। एवं विशेषण विशिष्ट स्वरूप का अमृतमय, मुखचंद्र निर्गत वेणुगीत द्वारा व्रजांगनाएँ अनुभव कर रही हैं। तात्पर्य यह है कि विप्रयोगात्मक ही श्रृंगार व्रजांगनाओं के लिये है। और जगत और नटों द्वारा जो भावना सामाजिकों द्वारा होती है, वह अभिनिवेश मात्र है, मनोराज्य मात्र है। किंतु यहाँ पर तो इनकी भावना फलपर्यवसायिनी है। भावुकों की भावना मनोराज्य नहीं होती। वह जैसी भावना करते हैं, वैसी वस्तु हो जाती है। कहा है कि ‘यद्यद्वियात उरुगाय विभावयन्ति तत्तद्वपुः प्रणयसे सदनुग्रहाय।’ अर्थात भावुकों की जैसी भावना होती है, वैसा ही प्रभु स्वरूप बनाते हैं। इस दृष्टि से इस अभिनय द्वारा भी श्रीव्रजस्थिता व्रजांगनाओं में जो भाव व्यक्त होंगे, वे सच्चे ही होंगे। यहाँ यद्यपि केवल ‘वर’ ही कह सकते थे, पर विप्रयोग मर्यादा रक्षणार्थ ‘नट’ भी कहा। अभिनय साम्रगी सहित आधिदैविक शक्तियों में संप्रयोग और व्रजांगनाओं में विप्रयोग उत्पन्न करते हुए प्रभु नट की तरह नटवर वंश से सभी भावों को व्यक्त करते हैं। इसका अनुभव करती हुई व्रजांगना कहती है- सखि! विधाता के दिये हुए लोचनों को अर्थात अंग-प्रत्यंग का सफल करो। इतने सुन्दर दर्शन व्रज में न होंगे। पशुओं, गोपालों की भीड़ में मनमोहन व्रजेन्द्रनन्दन जब व्रज से वृन्दावन में जाते हैं, तब दर्शन निर्विघ्न नहीं होता। पशु, लज्जा, पलकें, गोपालवधू इनका व्यवधान हो जाता है। सखि! निकुंज में छिपकर श्यामसुन्दर का दर्शन करेंगे। यहाँ वैसा संवाद, नृत्य, गायन नहीं हो सकता- ‘अक्षण्वतां फलमिदं न परं विदामः।’ यहाँ व्रजेशसुत इसलिये कहा कि यदि श्वश्रू ननन्दा कान दें तो दें, हम क्या अनुचित कहती हैं? जड़, चेतन, पशु जब सब ही व्रज राजकुमार के अमृतमय मुखचन्द्र के दर्शनाभिलाषुक हैं, वे प्राणिमात्र के परप्रेमास्पद हैं तब कुछ चिन्ता नहीं। सखि! चलो ‘गायमानौ गायेन मानः सत्कारः ययोः तौः’ नट का लोग सम्मान करते हैं, पर सर्वस्व नहीं देते। यहाँ प्रभु के लोकोत्तर गायन में गोपाल सर्वस्व न्यौछावर कर देते हैं। ‘गायेन मानः अहंकारः ययोः’ प्रभु कहते हैं - आओ, तुममें है कोई ऐसा गायन करने वाला। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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