भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
वेणुगीत
वृन्दारण्य स्वयं सुशोभित है ही, पर प्रभु के श्रीचरणारविन्दों से अंकित होने के कारण वह अधिक सुशोभित हुआ। अथवा ‘स्वपदं रमणं रतिजनकं यस्य तत्’ भगवान के श्रीचरणारविन्दों से रमण, रति, आनन्द प्राप्त होता है जिसको, ऐसा वृन्दावन अर्थात प्रभु के श्रीचरणों के स्पर्श में वृन्दारण्य को अद्भुत, लोकोत्तर आनन्द प्राप्त होता है। भगवान का चरण ही आनन्दमय मंगलमय है। इसलिये जिसको भी स्पर्श हो उसी को आनन्द होगा ही, पर विशेषरूप से जो सरस हैं उनको अधिकाधिक आनन्द होता है। अतः वृन्दारण्य को अधिक आनन्द-रमण-हुआ। वृन्दारण्य सरस है, आर्द्र है। तभी भगवान के श्रीपद वहाँ अंकित होते हैं। यदि बहुत सा श्रवण भी कर लिया, पर हृदय आर्द्र सरस न हो, तो प्रभु के पद अंकित नहीं हो सकते। कठोर लाक्षा पर अंक सुस्थिर नहीं होता। अग्नि सम्बन्ध से लाख द्रुत होने पर अंग (मुहर) वहाँ सुस्थिर होगा। इसी रीति से हृदय यदि आर्द्र है तभी भगवान के मंगलमय चरण अंकित होंगे। कठोर हृदय में यदाकदाचित् प्रसंगवश अभिव्यक्त होने पर भी सुस्थिर अंकित न हो सकेंगे। प्रसंगवश खल भी उत्तमोत्तम वार्तालाप प्रसंग में रहते हैं, मगर वे उसमें स्थिर नहीं होते। वहाँ मालूम होने वाला रस रसाभास है। अत: हृदय द्रुत करने का प्रयत्न करें, तो प्रभु में स्थायी रति हो। इसलिये वृन्दारण्य द्रुत होने से वहाँ श्रीचरण अंकित होते हैं और उसको रमण-आनन्द-रति प्राप्त होती है। यह तो वृन्दारण्य का अद्भुत भाग्य है कि वहाँ भगवान श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्दकन्द के निरावरण चरण हैं। यह भाग्य आज तक किसी को प्राप्त नहीं हुआ। द्वारका में भगवान का निवास था, वहाँ वे थे राजाधिराज। राजाधिराज के निरावरण चरणों का स्पर्श भूमि को कैसे हो सकता है? तभी तो मथुरा को भी मथुरानाथ के चरणों का स्पर्श नहीं। उसे यह सौभाग्य ही नहीं है। यह वृन्दारण्य को ही सौभाग्य है, क्योंकि यहाँ पर गोचारण रूप स्वधर्मपालनार्थ प्रभु निरावरण चरण ही पधारे। आनन्द वृन्दावन चम्पू में कथा है कि- एक बार श्रीकृष्णचन्द्र गोचारणार्थ वन जाने को मचल पड़े। प्रभु ने कहा- ‘मैया, मैं तो गोचारण के लिये जाऊँगा। माता नन्दरानी यशोदा और बाबा नन्दराय तो अपने ललन को एक क्षण के लिये भी अपने से वियुक्त होने देना नहीं चाहते थे। फणी को जैसे मणि में लोकोत्तर अनुराग होता है, वैसे नन्दराज को हमारे ललन गोचारण के लिये जायँ, यह वियोग कैसे सहन हो? रात्रि में जब व्रजगेहिनी अपने ललन को अंग में लेकर सोती, तो बीच-बीच में जागती, बार-बार अपने ललन को स्पर्श करती। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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