भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
वेणुगीत
भूमि से लेकर क्रमशः सर्वोपरि अव्यक्त और उसके ऊपर भगवान यही अव्यक्त शेष है। ‘शिष्यते यः स शेषः’, कार्यों के कारणों में लय होने के बाद कारण ही शेष रहता है। वह अव्यक्त मायावच्छिन्न चैतन्य महाकारण सहस्रफणायुक्त है। उसी पर श्रीमन्नारायण शयन करते हैं। वही महाकारणातीत, कार्यकारणातीत परब्रह्म है। भागवत में कहा है- ‘अव्याकृतमनन्ताख्यं;’ वही प्रकृतिविशिष्ट चैतन्य अनन्त भगवद्धिष्ठान आसन है। भगवदाकाराकारित, स्वच्छ, स्निग्ध मनोवृति पर सगुण, साकार ब्रह्म प्राकट्य है। जहाँ भगवान हैं वहाँ इसको जाना पड़ेगा, क्योंकि उसके बिना राम का प्राकट्य नहीं होगा। अत: भक्त हृदय ही अवध और भक्त हृदय ही वृन्दारण्य। उसके सब जगह प्रकट करने में कठिनाई है, मेहनत है। पर वह है व्यापक। जैसे नेत्र जिसे कहते हैं वह नेत्रगोलक और उसके भीतर अतीन्द्रिय, इन्द्रिय है, वैसे वृन्दारण्य गोलक और उसमें मुख्य वृन्दारण्य। वहाँ लौकिकता का भान दोषवश होता है। भगवान तो अपने आप में ही प्रतिष्ठित हैं। वह शेष केवल अव्यक्त जडांश नहीं, किन्तु अव्यक्तांश पर चेतनांश होता है। वृन्दारण्यादि सर्व अद्भुत, अनन्त, परमानन्दसिन्धु में से ही विकसित हैं। उसमें भी उसके भी ऊपर भगवत्स्वरूप वृन्दावन अलग है। वृन्दारण्य अव्यक्त रूप है। उसमें रसरूप वृन्दारण्य है। और स्वस्वरूपभूत वृन्दारण्य में ही भगवान का रमण हुआ। ‘स्वपदरमणं, स्वपदादपि रमणम्’- वैकुण्ठ से भी रमण। व्रजांगना कहती हैं- ‘जयति तेऽधिकं जन्मना व्रजः श्रयत इन्दिरा शश्वदत्र हि।’ हे श्यामसुन्दर, आपके मंगलमयल जन्म से व्रज अत्यन्त सुशोभित हो उठा। “वैकुण्ठात् सर्वस्मादपि लोकात् अधिकं जयति।” कैसे? लक्ष्मी वृन्दावन में सदा सेवा करती है, वैकुण्ठ में सेव्या है। व्रज में लक्ष्मी श्रीजी के चरणरविन्दरज के स्पर्श के लिये लालायित है। “यदाञ्छया श्रीर्ललनाऽचरत्तपः।” यमुना घाट बिल्ववन में लक्ष्मी तपस्या करती है। इस प्रकार वह यहाँ पर सेविका है। ऐसे ‘स्वपद्भ्यां रमणम्।’ जहाँ पर श्रीचरणारविन्द पाषाणों पर अंकित हैं। पाषाण पर खड़े होकर किये वंशीनाद से वह कोमल हो जाने से भगवत्पद वहाँ पर अंकित हो उठा। ऐसे वृन्दारण्य में भगवान पधारे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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