भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
वेणुगीत
यह रसोद्रेक, आनन्दोद्रेक में होता है। अत: श्रीकृष्ण में व्रजांगनाभावापति और व्रजांगनाओं में श्रीकृष्णभावापत्ति कही गयी। वृषभानुनन्दिनी श्रीकृष्ण हो गयीं और श्रीकृष्ण वृषभानुनन्दिनी हो गये, यह भावना की महिमा है। औरों की भावना अभिनिवेश, अभिमान अदृढ़ और भगवान का तथा वृषभानुनन्दिनी का अभिमान सुदृढ़ है। जब रसोद्रेक में विपरीत रति का संचार हुआ, वृषभानुनन्दिनी का श्रीकृष्ण में अभिमान पुरःसर प्रवेश हुआ, तब वृषभानुनन्दिनी में भी श्रीकृष्ण का अभिमान पुरः सर प्रवेश हुआ। इसीलिये कहा जाता है कि- ‘शिवस्य हृदयं विष्णुः विष्णोश्च हृदयं शिवः।’ दोनों परस्पर अन्तरात्मा हैं। शिव संहारक और विष्णु पालक देवता हैं। संहार में तमोगुण प्राधान्य और पालन में सत्त्वगुण प्राधान्य होता है। सत्त्व स्वच्छ, शुभ्र प्रकाशात्मक तथा तम आवरणात्मक, काला है। अतः शंकर को कृष्ण होना चाहिये और विष्णु को शुक्ल, पर यहाँ तो सब उलटा ही है। क्यों? परस्पर सृदृढ़ उपास्यों पासकभाव से परस्पर का रंग परस्पर में आया। कारण- “सेवक स्वामि सखा सिय पीके।” शिव भगवान के सेवक भी, स्वामी भी, सखा भी, अतः स्वच्छ, सत्त्वमय विष्णु की भावना की महिमा से शिव शुक्ल हो गये, भावना की ही महिमा से विष्णु श्यामल हो गये। ऐसे ही देखें तो संकीर्णता को अवकाश नहीं। कहीं कहीं तो ऐसा भी लिखा है कि श्रीशंकर ही श्रीवृषभानुनन्दिनी हैं, क्योंकि दोनों परस्पर अन्तरात्मा ही हैं न! जैसे रुद्ररूपा वंशी मानी गयी, वैसे ही कहीं श्रीकृष्ण को काला का अवतार माना है। प्रकृत में यह आया कि साधारण श्रृंगार में भावना अभिमान मात्र है। यहाँ तो स्वरूप परिवर्तन भी है। यहाँ वृन्दारण्य, श्रीकृष्ण परमानन्दकन्द, वृषभानुनन्दिनी, व्रजांगनाएँ, एतत् समवेत मंगलमयी लीलाभूमि उस अचिन्त्य, अनन्त, अद्भुत, प्रेमानन्दरससिन्धु में क्षणे-क्षणे आविर्भूत-तिरोभूत होते रहते, उन्मज्जन-निमज्जन करते रहते हैं। उस स्थिति में कभी श्रीकृष्ण वृषभानुनन्दिनी के रूप में, कभी वृषभानुनन्दिनी श्रीकृष्ण रूप में प्रकट होती हैं। यही कहा ‘उभयोभयभावात्मा।’ आया यह कि साधारण नायक में उत्कट रस ही व्यक्त नहीं हो सकता, पर निखिलरसामृतमूर्ति उद्बुद्ध उभयविध श्रृंगाररसात्मा श्रीकृष्ण तो रसस्वरूप ही हैं। इनके सम्पर्क से इतना उत्कट, अद्भुत, अनन्तरस उद्भूत हो हो गया कि परस्पर भावापत्ति हो गयी। यह श्रीकृष्ण पूर्णतम, पुरुषोत्तम स्वयं भोक्ता ही हैं, भोग्य नहीं, व्रजांगना स्वयं स्त्री, भोग्या। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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