भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
वेणुगीत
मधुसूदन कहते हैं कि मैंने तो वहाँ पर चार पुरश्चरण किये, पर साक्षात्कार नहीं हुआ। इस पर श्रीकालभैरव ने पापों के चार पहाड़ दिखलाये और कहा कि उन पुरश्चरणों से ये नष्ट हुए अबकी बार साक्षात्कार होगा। मधुसूदन सरस्वती पुनः वृन्दावन गये, गोपल सहस्र नाम का अनुष्ठान किया और तब भगवान का प्राकट्य हुआ। जब श्रीश्यामसुन्दर सामने आकर खड़े हुए, तो मधुसूदन सरस्वती ने चट अपना मुँह फेर लिया। जिधर-जिधर श्यामसुन्दर जाकर खड़े हों उधर-उधर से मधुसूदन अपना मुँह फेर लें। आखिर श्रीकृष्णचन्द्र ने ही उन्हें मनाना शुरू किया। कहाँ यह स्थिति कि वह श्रीकृष्ण के लिये लालायित और कहाँ यह कि अब श्रीकृष्ण ही उन्हें मनाते हैं। महास्वातन्त्र्य के प्रथम पारतन्त्र्य अपेक्षित है। अगर स्वतन्त्रता चाहते हो, तो उसका कुछ त्याग भी करो। हम वेद, शास्त्र, माता, पिता, धर्म-कर्मों से भी स्वतन्त्रता चाहते हैं, पर यह स्वतन्त्रता तो परतन्त्रता के घोर गर्त में गिराने वाली है। बालक माता, पिता, अध्यापकों के परतन्त्र न हों, तो वे उच्छृंखल होंगे। फिर जन्म-जन्म के लिये घोर अनर्थमय कंटकाकीर्ण गर्त में पड़ेंगे। कोई भी राष्ट्र स्वतन्त्रता रक्षा के लिये सैनिक संगठन करना चाहे तो वह सेनापति के अत्यन्त परतंत्र हो। अगर सेना उसकी आज्ञा का उल्लंघन करे तो विजय, स्वतन्त्रता प्राप्त नहीं हो सकती। अतः परम सिद्धान्त यह है कि अनन्तकोटि ब्रह्माण्डनायक भक्त के परतन्त्र होते हैं। जिनके भ्रकुटिविलास से सबको नचाने वाली माया जिनके सामने नाचे वे स्वयं नाचते हैं- ‘तद्वशो दारुयन्त्रवत्’ परमानन्दमूर्ति श्रीकृष्ण कठपुतली के समान व्रजांगनाओं के परतन्त्र हो गये।
सर्वभूतों के हृदय में स्थित होकर भगवान काठ की पुतली के समान सबको नचाते हैं, और वे ही फिर प्रेम-परतन्त्र होकर भक्तों के खिलौने बन जाते हैं तथा च भक्त में भगवद्भावापत्ति, भगवान में भक्तभावापत्ति, इसी का नाम परस्पर भावापन्नता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज