भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
वेणुगीत
भगवान कहते हैं कि भक्त मुझे अपने वश में कर लेते हैं। परम भगवद्भक्त राजा अम्बरीष का दुर्वासा की कृत्या से रक्षण करने के लिये जब दुर्वासा पर चक्र छूटा, तो दुर्वासा देवताओं की शरण में गये। सब देवताओं ने कहा कि हम भक्त विद्रोही का रक्षण नहीं कर सकते। आगे ब्रह्मा, शिव का भी यही जवाब हुआ। आखिर दुर्वासा श्रीभगवान महाविष्णु के पास गये। तब भगवान कहते हैं कि, ‘आपका रक्षण करना तो ठीक ही है, पर क्या करूँ? मैं स्वतन्त्र नहीं। स्वतन्त्र अगर होता तो अवश्यमेव आपका रक्षण करता। मैं भक्त परतन्त्र हूँ। कारण, मेरा व्रत है कि- “ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।” हमारे भक्त इतने तन्मय हो जाते हैं कि वे मुझसे अतिरिक्त कुछ जानते ही नहीं। तब फिर मैं भी उनसे अतिरिक्त क्या जानूँ?’ इसी को लेकर यह आया कि पहले, भक्त में अत्यन्त पारतन्त्र्य, भगवान में स्वातन्त्र्य; पीछे ‘ये यथा’ के अनुसार भक्त में स्वातन्त्र्य, और भगवान में पारतन्त्र्य होता है। ‘ताहि अहीर की छोहरियाँ छछिया भर छाछ पै नाच नचावै।’ बड़े-बड़े देवाधिदेव जिनका ध्यान करते हैं, ‘भीरपि यद्विभेति’, उन्हीं भगवान श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्दकन्द के दोनों श्रीहस्त अपने एक हाथ में पकड़कर नंदरानी एक हाथ से छड़ी दिखायें और भगवान भी उस छड़ी से डरें, यही पारतन्त्र्य है। इससे स्पष्ट है कि पहले भगवान में स्वातन्त्र्य, फिर भक्त में स्वातन्त्र्य; पहले भगवत्सम्मिलन के लिये भक्त लालायित, फिर भक्त सम्मिलन के लिये भगवान लालायित। परमभक्त मधुसूदन सरस्वती ने वृन्दावन में जाकर भगवत्साक्षात्कार के लिये गोपाल सहस्र नाम के चार पुरश्चरण किये, पर उनको साक्षात्कार न हुआ। फिर काशी में आये और यहाँ पर श्रीकालभैरव का अनुष्ठान किया। उस अनुष्ठान पर श्रीभैरव प्रसन्न हुए। कहा-वर माँगो। इस पर मधुसूदन सरस्वती ने कृष्ण साक्षात्कार ही माँगा। भैरव कहते हैं कि वृन्दावन जाओ और वहाँ गोपाल सहस्र नाम का पुरश्चरण करो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज