भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
वेणुगीत
यह भाव आगे ‘अक्षण्वतां फलमिदं न परं विदामः’ इत्यादि में और स्पष्ट होगा। वाल्मीकि ने लिखा है- “यश्च रामं न पश्येत्तु यं च रामो न पश्यति। जिसने राम को स्नेहभरी दृष्टि से नहीं देखा, और जिसे राम ने कृपा दृष्टि से नहीं देखा, वह सर्वलोक में निन्दित है, उसकी अन्तरात्मा भी उसकी विगर्हा करती है। इसी प्रकार सर्व इन्द्रियों की निरर्थकता है कि जिनका भगवान में उपयोग न हुआ हो, इसीलिये भक्तगण इतने ही में संतुष्ट नहीं कि वह उद्बुद्ध उभयविध संप्रयोग विप्रयोगात्मक श्रृंगाररसात्मक, श्रृंगाररसात्मा भगवान केवल बुद्धिग्राह्य हो, वह तो उसका रोम-रोम से, सर्वेन्द्रियों से संस्पर्श अवगाहन चाहते हैं- अतः उनके मनोवासनानुसार उद्बुद्ध उभयविध श्रृंगाररसात्मक तत्त्व ने सर्वेन्द्रियग्राह्य होने के लिये सर्व भाव से समास्वादन करा देने के लिये नटवरवपु होकर वृन्दारण्य में प्रवेश किया। ‘विभ्रत्’ ‘डुभृ´ धारणपोषणयोः’। इसके धारण-पोषण दोनों अर्थ हैं कि उद्बुद्ध उभयविध श्रृंगाररसात्मक भगवान वेणुवादन करते हुए जो वृन्दारण्य में पधारते हैं, वह कौन? तो श्रीवृषभानुनंदिनी के हृदय की वस्तु, भावुकों के हृदय की वस्तु, यानी भावुकों का भाव ही श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्दकंद के रूप में प्रगट हुआ, एवं च भगवान भक्त मनोभावनामय हैं। स्वेच्छामयस्य न तु भूतमयस्य’, ‘स्व-स्वीया तेषां इच्छा स्वेच्छा, तन्मयः नतु भूतमयः। यह वपु भूतमय, मायामय, प्रकृतिमय नहीं किंतु भावुकों के प्रीतिमय, इच्छामय है, उद्बुद्ध उभयविध श्रृंगाररसात्मक स्वरूप कहा था तो श्रीवृषभानुनंदिनी के अंतःकरण में, श्रीव्रजांगनाओं के अन्तःकरण में। नायक विषयक श्रृंगार नायिका के ही अंतःकरण में (हृदय में) उद्बुद्ध होता है। यह अमूर्त रस श्रीवृषभानुनंदिनी के हृदय की वस्तु मूर्त होकर श्रीवृंदारण्य धाम में कैसे? तो सर्वेन्द्रिय ग्राह्य होने के लिये। उद्बुद्ध उभयविध श्रृंगार रसात्मा यदि हृदयस्थ वस्तु फिर सर्वेन्द्रिय ग्राह्य नहीं, पर वही हृदयस्थ वस्तु वृंदारण्यधामस्थ हुई। हृदयस्थ ही पहले कैसे? तो शुरू से ही उसका धारण-पोषण श्रीकृष्णचंद्र परमानन्दकंद ने ही किया, ‘आशाभृतां त्वयि चिरादरविन्दनेत्र’। व्रजांगना कहती है- ‘हे श्यामसुन्दर व्रजेन्द्रनंदन, आपके सम्मिलन की आशा को शुरू से ही धारण किया, पोषण किया, उस आशा-कल्पलता का बीज व्रजांगनाओं के स्निग्ध हृदय-क्षेत्र में आरोपण किया, रूखड़ पथरीले बालुकामय क्षेत्र में यह आशा कल्पलता अंकुरित न होगी, अर्थात् भगवत्सम्मिलन की आशाकल्पलता हृदय में बोयी जाय, वह अंकुरित होे, पुष्पित-फलित हो।’ प्रत्याशित वस्तु का सम्मिलन ही उसकी सफलता- यह भगवत् कृपा से भावुक हृदय में प्रकट होती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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