भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
वेणुगीत
व्रजांगनाओं के हृदय में भगवत्सम्मिलन की आशा को भी उन्होंने ही बोया, पोषण किया, इस इक्कीसवें अध्याय में वह पुष्पित हो गयी, उसी फूल की सुगंधि वेणुगीत द्वारा निकलेगी। भाव यह कि श्यामसुन्दर व्रजेन्दनंदन श्रीकृष्णचंद्र ने ही श्रीवृषभानुनंदिनी के, श्रीव्रजांगनाओं के हृदय में स्वसम्मिलन की उत्कण्ठा की, आशा को बोया और वही श्रृंगार रस का स्वरूप है। जब कभी वह आशा कल्पलतांकुर मुर्झाने लगता है तो व्रजांगना अपने अश्रुबिन्दु से उसे सींचना चाहती हैं, जबकि श्रीकृष्णचंद्र परमानन्दकंद के वियोगानलरूप वाडवाग्नि से वह दग्ध होने लगता है तब वही श्रीकृष्ण चरणारविन्द-परागरूप कज्जल को आँखों में लगाती हैं, श्रीकृष्णपाद-पंकजपराग से यह अग्नि प्रशान्त होती है। इस श्रृंगार रस का धारण पोषण श्रीकृष्णचंद्र ने ही किया, यहाँ पर भी हृदयस्थ उद्बुद्ध उभयविध संप्रयोग विप्रयोगात्मक श्रृंगार रस को मूर्त होने के लिये धारण और पोषण किया। अब भूषण का वर्णन-बर्हापीड- बर्हमय आपीड, वैजयन्ती, कर्णिकार, पीताम्बर यह सब भूषण है, स्वरूप केवल ‘नटवरवपु’ यदि नटवत् वरवत् वपु का ऊपरला अर्थ करें तो शोभा और भूषण आ जाता है, नट ही विचित्र वेश-वसन से अपने को सजाता है, अर्थात वैसा अर्थ लेने से वैसे वपु का बोधन है, किन्तु इसके अलावा नटपद से वरपद से विप्रयोग संप्रयोगात्मक श्रृंगार कहा गया तो भगवान का उद्बुद्ध उभयविध श्रृंगारात्मक रसस्वरूप आता है। भगवान के तीन श्रृंगार हैं, ‘भूषिता अप्यभूषयन्।’ श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्दकंद जब गोपाल बलराम के साथ माता के भवन से निकलने के पहले ही माता उबटन लगाकर अभ्यंग करने के बाद नानाविध विचित्र दिव्य अलंकारों से भूषित करके गोचारण के लिये वृन्दारण्य में भेजती, फिर वन में आकर जब ग्वालबाल वन की सामग्रियों से भूषित, कर्णिकार से आभूषित करते, गुंजा की परमसुन्दर माला पहनाते हैं, उद्बुद्ध उभयविध श्रृंगार रस का यह निर्यास रूप, आनंद-सुधासिन्धु का मंथन कर यह अद्भुत सारतम तत्त्व विनिःसृत हुआ, पूर्णानुराग रससार सिन्धु से प्रभु के सर्वांग का निर्माण हुआ, जब स्वरूप के प्रादुर्भाव होने पर उबटन, अभ्यंग, अनुलेपन, स्नान वगैरह। पहले उद्वर्तन। आनन्द वृन्दावन चम्पू में लिखा है कि ‘उद्वित्तितमिव सौरभ्येण’ अन्यों को सौरभ्य के लिये उबटन, यहाँ भगवान के स्वरूप को तो सौरभ्य से ही उबटन, अनंतकोटि ब्रह्माण्डान्तर्गत जो सौरभसार सर्वस्व वही आपके लिये उबटन ‘अभ्यक्तमिव स्नेहेन’ अन्यत्र लोगों में स्नान से मधुरिमा व्यक्त की जाती है, यहाँ तो भगवद्विषयक भावुकों के स्नेह से भगवान के श्रीअंग का अभ्यंग हुआ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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