भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
वेणुगीत
अमूर्त उद्बुद्ध उभयविध संप्रयोग विप्रयोगात्मक श्रृंगाररस मूर्त श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्दकंद के रूप में मूर्त होकर देखा जाय, जैसा रस का ही परिणाम शर्करादि जैसे रस का ही निर्यासगोंद, वैसे ही परमानन्द रस का निर्यास भगवान, गोंद रस का ही घनीभाव होता है- आगे इसकी अभिव्यक्ति में बड़ी ऊँचाई रखी है। यह मूर्त कैसे बना?
नटवरवपुः विभ्रत् से कहा गया कि उद्बुद्ध उभयविध संप्रयोग विप्रयोग श्रृंगार रस स्वयं अमूर्त होने से उनका गमनागमन न हो सकता- अतः “विभ्रत्”। है तो अमूर्त ही, पर भक्तानुग्रह-विशेषात् उसी ने नटवरवपु धारण किया, अमूर्त रस मूर्तरूप में प्रकट हुआ, भक्त कहते हैं, वेदांतियों का ब्रह्म केवल मनोग्राह्य, बुद्धिग्राह्य है, सर्वेन्द्रियग्राह्य नहीं, पर वे तो चाहते हैं निखिल रसामृतमूर्ति भगवान को सर्वेन्द्रियग्राह्य बनाना, सर्व इन्द्रियाँ मन-बुद्धि की ईर्ष्या करती हैं, उनको पूर्णतम पुरुषोत्तम का आस्वादन करते देख नेत्र, श्रोत्र, सर्व ही लालायित हो जाते हैं और क्या रोम-रोम अपने प्रियतम प्राणधन के संश्लेष के लिये उत्कंठित होता है, व्याकुल हो उठता है। भगवान का संमिलन कौन न चाहेंगे? कहते हैं- ‘परांचि खानि व्यतृणत स्वयभूस्तस्मात्पराङ् पश्यति नान्तरात्मन्’। स्वयंभू ने इंद्रियों को बहिर्मुख रचा। ‘व्यतृणत्’ में तृहु धातु हिंसार्थक है। स्वयंभू ने इंद्रियों को बनाया अर्थ में व्यरचयत् कहते हैं, हिसितवान् क्यों? तो उसने उन्हें बहिर्मुख बनाकर मार डाला, उनको सर्व प्राणियों के परमप्रेमास्पद भगवान के रसास्वादन से वंचित किया। ‘प्रिय बियोग सम दुख जग नाहीं’, ‘लोके नहि स विद्येत यी न राममनुव्रतः’ लोक में ऐसा कोई नहीं है जो प्राणेश्वर का वियोग सहन करे, जो इन्द्रियों को बहिर्मुख न बनाया होता तो अंतरात्मा का आस्वादन करते। इसलिये स्पष्ट है कि सर्व इन्द्रियाँ भगवत्तत्त्व के अनुभव बिना, भगवद्दर्शन बिना, भगवान के स्वरूपरस के आस्वादन बिना, भगवान के मंगलमय श्रीअंग के संस्पर्श बिना, अपने को अकृतार्थ हतभाग्य समझती हैं, वह अपना हिंसन समझती हैं, जैसे मति ब्रह्माकार होकर रस का आस्वादन के कारण, वैसे हम भी करें। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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