भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
वेणुगीत
एक समय जब भगवान ने मिट्टी खायी तब बलदाऊ ने अम्बा से आकर कहा कि कन्हैया ने मिट्टी खायी। सुनकर वह चली मारने को और प्रभु को पकड़कर कहा, ‘लाला, तूने मिट्टी क्यों खायी?’ तो प्रभु ने डरकर कहा, ‘नाहं भक्षितवानम्ब’- मैया मैंने मिट्टी नहीं खायी। यह ऐश्वर्य दिखलाने के लिये नहीं, किंतु प्राकृत शिशु के समान अम्बा से डरकर। तब अम्बा कहती है- ‘सब यही कहते हैं’। प्रभु ने कहा, ‘सब झूठ है’, मैया बोली ‘बलराम भी तो कह रहे हैं।’ भगवान ने कहा, ‘आज ग्वालबालों ने दाऊ को मिला लिया है, इसीलिये वह भी झूठ बोल गये, अगर विश्वास न हो तो मुँह देख ले।’ भाव यह है कि मुँह दिखाने को तैयार हो जाने से अम्बा समझ लेगी कि मिट्टी नहीं खायी है, अगर मिट्टी खायी होती तो मुँह दिखाने के लिये तैयार न होता, एक झूठ छिपाने के लिये दुगुनी-तिगुनी झूठ बोलनी पड़ती है। पर अम्बा भी बड़ी जबर। उसने कहा ‘मुँह खोल देखूँ तो सही’ सुनकर भगवान ने मुँह खोल दिया। खोल क्या दिया, भावुक कहते हैं कि मातृकोप सूर्य रश्मि से प्रभु मुखकमल खिल गया। जब खिला तो भीतर ब्रह्मांड! यह कैसा हुआ? इसका कारण यह कि भगवान की ऐश्वर्याधिष्ठात्री महामाया प्रभु के पीछे-पीछे सेवा का अवसर ढूँढ़ती हुई घूम रही थी। माया कहती, ‘भगवन! लोक आपको बड़ा तंग करते हैं, यह मुझसे नहीं सहा जाता।’ प्रभु ने कहा ‘तू चुपचाप रहकर तमाशा देख, कुछ करने के फेर में न पड़’, तथापि उसे न मानती हुई जब माँ मुँह में मिट्टी देखने लगी तो ऐश्वर्याधिष्ठात्री महाशक्ति ने सोचा कि अगर माँ मिट्टी को देख लेगी तो तेरे प्रभु को पीटेगी, यह मेरे होते ठीक नहीं। इसीलिये उसे ऐश्वर्याधिष्ठात्री शक्ति ने मुंह में ब्रह्मांड दिखाया। मैया के हाथ से छड़ी गिर गयी। भगवान ने सोचा, यह मामला बिगड़ रहा है। झट ‘व्यतनोद् वैष्णवीं मायां’, यशोदा मैया आँख खोलकर देखते ही समझ गयी कि मेरे लाला को कुछ अलाय-बलाय है, तब उसके निवारण के लिये थूः थूः करने लगी। भगवान माया को कहते हैं- ‘ले, तूने मुझे बचाया क्या, थू थू करा दिया।’ अस्तु, यह सब भाव नटनरवपु में ही संभव है। कहा है- “मायाश्रितानां नरदारकेण साकं विजह्रः कृतपुण्यपुंजः।।” इस तरह आगे ‘विभ्रत्’ है। क्यों? “एवं नटवरस्येव वपुः नटवरवपुः तादृशं विभ्रत्।” पहले कहा गया कि भगवान रसात्मा हैं, तो भी रस अमूर्त होने के कारण चल फिर नहीं सकता, परम तत्त्व भी चलता-फिरता नहीं, उद्बुद्ध उभयविध संप्रयोग विप्रयोग श्रृंगार रसात्मा एक अमूर्त पदार्थ है, रस वस्तु हृदयस्थ है, केवल अमूर्तरस वेणु न बजाता, न चलता, न फिरता, वह तो केवल वृषभानुनन्दिनी के हृदय में है, इसी से कहा- ‘विभ्रत्’। अमूर्तरस यहाँ मूर्त बना, इसलिये कि भावुक उसे सर्वेन्द्रिय ग्राह्यरूप से ले सकें। अमूर्तरस तो मनोग्राह्यमात्र है, वेदान्त में परम वस्तु का आस्वाद मनोग्राह्य ही कहा है- “बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम्”, “स्वयं तदन्तःकरणेन गृह्यते” अतः कहा उसमें सर्वेन्द्रियग्राह्यता नहीं, भावुकों को तो मनोग्राह्यतामात्र से संतोष नहीं किन्तु सर्वेन्द्रियों में, अन्तरात्मा में, अन्तःकरण में, प्राण में, रोम-रोम में उसका अनुभव हो, इन्हीं भावुकों की इच्छापूर्ति के लिये ‘विभ्रत्’। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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