विषय सूची
भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
किरातिनियों का स्मररोग
यह सब कुछ अप्राकृत तत्त्व में प्राकृतवत प्रतीति है, अलौकिकता का भाव है। “नृणां निःश्रेयसार्थाय व्यक्तिर्भगवतः प्रभोः।” उस अचिन्त्य, अनन्त्य, अग्राह्य, अलक्षण, अव्यपदेश्य तत्त्व का सगुण, साकार विग्रह रूप में इसीलिये प्राकट्य है कि किसी भी भाव से लोगों की उसमें प्रीति हो और उनका कल्याण हो। सहज भाव रागानुगा प्रीति है। रागतः प्राप्त में विधि नहीं होती, वह तो अत्यन्त अप्राप्त में होती है। कान्ता को अपने कान्त में स्वाभाविक राग होता है, देवता में विधिप्राप्त राग है। सर्वेश्वर सर्वशक्तिमान प्रभु इसी आशय से सहज भाव से उपास्य बनने के लिये प्राकृत होते हैं। कामी को जो कामिनी में राग होता है, लोभी को जो धन में राग होता है, वही राग प्रभु के प्रति सहज होना चाहिये। माता का जो अनुराग अपने बालक के प्रति होता है, चाहे वह काला-कलूटा दिव्य-भव्य कैसा भी हो वैसा ही सहज भाव प्रभु के प्रति होना चाहिए। श्रीव्रजेन्द्रगेहिनी का यही स्वाभाविक वात्सल्य भाव मनमोहन श्यामसुन्दर के प्रति था। तभी तो उनका मृद्भक्षण लीला पर छड़ी लेकर मारने का माधुर्य भाव है। इस माधुर्य-भाव-प्रसंग में बाल बिहारी प्रभु के असत्य भाषण को प्रकारान्तर से सत्य बताना, माधुर्यपोषकों की दृष्टि में लीपापोषी करना है। हाँ, तो प्रकृत में यह झूठ और इसी तरह चौर्य भी श्रीकृष्ण के आश्रय-माहात्म्य से माहात्म्यवान हैं। जैसे क्षीरसमुद्र या मधुर समुद्र की लहरी तरंग मधुर, वैसे ही आनन्द सुधासिन्धु प्रभु की समस्त लीलाएँ मधुर हैं- “मधुराधिपतेरखिलं मधुरम्।” व्रजांगनाओं का “काम” विषय के माहात्म्य से पवित्र है। यहाँ देखना यह है कि उनका काम किसमें था? वह था उसी पूर्ण ब्रह्म पुरुषोत्तम श्रीश्यामसुन्दर में। शुद्ध विवेचन से तो “रसो वै सः” के अनुसार वही परब्रह्म श्रीकृष्ण ही रसस्वरूप हैं। उन्हीं के विकृत रूप नवरस हैं। जैसे सत्ता एक ही है “सदेव सोम्येदमग्र आसीत्” किन्तु शुभ, अशुभ सब कुछ उसी का परिणाम है। वही ‘सत्’ पुण्य रूप से विवर्तित होकर उपादेय और पापरूप से विवर्त होकर अनुपोय हो जाता है। वही सत् अशेष विशेषातीत होकर शुद्ध सत् है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज