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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
किरातिनियों का स्मररोग
‘श्रृंगार’ भी उसी रस का विवर्त है। आलम्बन या आश्रय की पवित्रता अथवा अपवित्रता से उसमें पवित्रता या अपवित्रता का आरोप होता है, स्वतः रस निर्विशेष है। जहाँ प्राकृत कामिनी-कामुक उस रस के आश्रय होंगे, वहाँ वह दोष होगा, अत: उनका श्रृंगार दोष वह है। सहस्रों दिवस के ब्रह्मविषयक मनन, चिन्तन से भी इतनी भावना नहीं बनती, जितनी अनेक जन्मों के मलिन संस्कारों के कारण क्षणिक कान्ता दर्शन, स्मरण, चिन्तन से बनती है। अनेक स्थापित किये गये प्रतिकूल भाव लुप्त हो जाते हैं। पर, यह बात उसी अवस्था में है, जहाँ अवलम्बन या आश्रय दोषयुक्त है। व्रजांगनाओं को ‘स्मर’ है सही, पर किसमें? “नृणां निःश्रेयसार्थाय व्यक्तिर्भगवतः प्रभोः” में, मनुष्यों का कल्याण करने के लिये साकार रूप में प्रकट हुए ब्रह्म में। उसमें किसी भी तरह जीवों की प्रवृत्ति होने से उनका कल्याण ही कल्याण है। चाहे प्रेम से, भक्ति से और चाहे काम, क्रोध, भय, स्नेह आदि से भी भगवच्चिन्तन होने से कल्याण होता है- “कामं क्रोधं भयं स्नेहमैक्यं सौहृदमेव च। कंस को भय से, शिशुपाल को द्वेष से, गोपियों को स्नेह से पूर्णतम पुरुषोत्तम परब्रह्म कल्याण-गुणगण-निलय, कल्याणदायक के प्रति एकान्त दृढ़निष्ठा हुई। कहा जा सकता है कि वेन भी तो द्वेषी था, उसको भगवद्विषयक एकान्त दृढ़ निष्ठा क्यों नहीं हुई और शिशुपाल को क्यों हुई, जिसने गिनकर भगवान श्रीकृष्ण को सौ गालियाँ दीं? सबके देखते-देखते उसमें से एक ज्योति निकलकर श्रीकृष्ण के मुख में लीन हो गयी। कारण स्पष्ट है कि शिशुपाल को भगवान के अस्तित्व में दृढ़ निश्चय था और वेन ईश्वर को मानता ही न था, वह तो अपने को ही सर्वेश्वर प्रख्यात करता था। कहा है कि प्राणी भय या काम से जितनी अधिक तन्मयता को प्राप्त होता है, उतना अन्य किसी प्रकार से नहीं होता है- “यथा कामाद् भयाद्वाऽपि मर्त्यस्तन्मयतामियात्।” शिशुपाल और कंस का भी यही हाल था- बैठते, सोते, चलते, खाते, घूमते हुए, उन्हें कृष्ण ही कृष्ण दिखलायी पड़ते थे, सारा जगत उनके लिये कृष्णमय था- “आसीनः संविशस्तिष्ठन् भुंजानः पर्यटन् महीम्। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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