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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
साक्षान्मन्मथमन्मथः
घटाकाश का यथा महाकाश के साथ सम्मिलन है तथैव जीवात्मा का परमात्मा के साथ सम्मिलन होता है, परन्तु इससे भी सरस सुन्दर दृष्टान्त है, तरंग-जल का। जैसे वीची के भीतर, बाहर, मध्य या सर्वांग में जल भरपूर रहता है, इसी तरह जीवात्मा में ब्रह्मात्मा का सम्मिलन है। वीची और वारि के निर्जीव दृष्टान्त को सजीव रूप में लाते हुए, उसी को नायिका और नायक का रूपक दे दिया गया। सजीव दृष्टान्तों में नायिका-नायक से बढ़कर कोई भी ऐसा दृष्टान्त नहीं है, जहाँ घनिष्ठ व्यवधान रहित सम्मिलन बनता हो अत: अन्तरंग पति-पत्नी का वही सम्बन्ध माना गया है, जो वारि-वीचि का है। उक्त प्रकार से यद्यपि भगवान परमानन्द घन ही सब कुछ हैं और वही सर्वान्तरात्मा और सर्वद्रष्टा एवं सर्वविज्ञाता हैं, फिर विज्ञाता को किससे जानें, “विज्ञातारमरे केन विजानीयात्” तथापि निरुपाधिक निर्दृश्य रूप से सदानन्द घन भगवान का साक्षात्कार बिना उनकी कृपा नहीं होती, तभी भगवती श्रुति ने भगवान को जानने के लिये श्रद्धा, भक्ति और ध्यान योग को प्रधान कारण कहा है, ‘श्रद्धाभक्तिध्यानयोगादवेहि’। श्री ब्रह्मा जी ने भी यही कहा था कि हे नाथ! यद्यपि आपका सर्वावभासक दिव्यस्वरूप अत्यन्त स्पष्ट है, तथापि आपके श्रीचरणकमल प्रसाद से अनुगृहीत ही प्राणी इसे जान सकता है, अन्यथा नाना प्रकार की युक्तियों से सदा विवेचन करने पर भी यह दुर्लभ ही है। यद्यपि पूर्ण विरक्त एवं शान्त समाहित महापुरुष वेदान्तों के श्रवण-मनन-निदिध्यासन से परम तत्त्व का साक्षात्कार कर सकते हैं, तथापि शीघातिशीघ्र तत्त्व साक्षात्कार के लिये, किसी विशेष स्वरूप की उपासना अत्यन्त आवश्यक है, कारण कि प्राणियों के चित्त में नाना प्रकार के शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध एवं अन्धकार, प्रकाश आदि दृश्यों का स्फुरण ही बना रहता है, निद्रा या विक्षेप से शून्य अवस्था दुर्लभ है। दृश्य के स्फुरण निरोध बिना, दृश्यातीत निर्द्रश्य विशुद्ध तत्त्व का स्फुरण अतयन्त असंभव है। जगत यद्यपि दुःखमय है, तथापि मोहवश जगत के चिन्तन में मिठास प्रतीत होती है, और प्रपंचातीत भगवान परमानन्दमय एवं सर्वानर्थनिवर्तक हैं, तथापि उनमें जीव का आकर्षण नहीं होता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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