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जैसे ज्वराक्रान्त व्यक्ति को तिग्म आतप में स्वाद किंवा सर्पदंशन के विष से प्रभावित प्राणी को कड़वी नीम में मिठास प्रतीत होती है, वैसे ही मायामोहित प्राणियों को विषम विषमय विषयों में ही स्वाद आता है। जैसे पित्तदोष से दूषित रसनावाले प्राणी को मधुर मिश्री में तिक्ताता का अनुभव होता है, वैसे ही अनादि दुर्वासनाओं से दूषितान्तःकरण प्राणियों को भगवान में रूक्षता भासित होती है। तभी तो मन्त्रदृष्टा भगवान से इस बात की भी प्रार्थना करते हैं कि हे देव! आप मेरा निराकरण न करें और आप ही मुझ पर ऐसी कृपा करें कि आपका निराकरण (उपेक्षा या विस्मरण) न करूँ, क्योंकि मैं आपको न भूलूँ, यह मेरे वश की बात नहीं है।
- “नाथ जीव तव माया मोहा, सो निस्तरइ तुम्हारेहिं छोहा।”
- “माहं ब्रह्म निराकुर्य्याम् मा मा ब्रह्म निराकरोत्।।”
इससे यह स्पष्ट है कि प्रभु कृपा से ही प्राणियों की प्रवृत्ति प्रभु की ओर होती है। तभी महानुभावों ने कहा ह-
- “सोऽहं तवाङ्घ्र्युपगतोऽस्म्यसतां दुरापं तच्चाप्यहं भवदनुग्रहमीशमन्ये।
- पुंसां भवेद्यर्हि संसरणापवर्गस्त्वय्यब्जनाभ सदुपासनया रतिः स्यात्।।”
हे कृपामय! असतों को दुष्प्राप आपके श्रीचरण पंकज की शरण में आया हूँ, यह आपका ही अनुग्रह है, क्योंकि जब संसार की निवृत्ति होने को होती है तभी हे अब्जनाभ! प्राणियों की सदुपासना के द्वारा आप में प्रीति होती है। ठीक ही है, प्रभु की अनुकम्पा बिना प्रभु में प्रीति नहीं, परन्तु प्रभु में प्रीति बिना, भास्वती भगवती अनुकम्पा देवी का प्राकट्य भी कैसे हो। वास्तव में बीज और अंकुर की तरह श्रीअनुकम्पा और भगवती भक्ति में इतरेतर निमित्तनैमित्तिकभाव ही युक्त है, अत: श्रीजगद्धरभट्ट ने स्तुति कुसुमांजलि में कहा है -
- “नानुग्रहस्तव विना त्वयि भक्तियोगं, नानुग्रहं तव विना त्वयि भक्तियोगः।
- बीजप्ररोहवदसावनयोर्न कस्य भूत्यै परस्परनिमित्तनिमित्तिभावः।।”
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