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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
साक्षान्मन्मथमन्मथः
जल और तरंग का सम्मिलन ही यथार्थ में अत्यन्त व्यवधानशून्य सम्मिलन है। हाँ, कुछ भावुकों का कहना है कि सुकोमल कमल का मकरन्दमधु पान करने वाला मधुप होता है, परन्तु वास्तव में यदि कमल को ही रसना और घ्राण हो, तभी व्यवधानशून्य उसके सौगन्ध्य और सौरस्य का अनुभव किया जा सकता है। जीवात्मा और परमात्मा के मिलन का अनेक भावों से शास्त्रों में वर्णन किया गया है। यद्यपि शुद्ध प्रत्यक्चैतन्याभिन्न परमात्मा नित्य प्राप्त वस्तु है, तथापि जब प्राप्ति का वर्णन किया जाता है, तब कहीं तो ‘अत्र ब्रह्म समुश्नुते’ ब्रह्मविद् का यहाँ ही ब्रह्म-सम्भोग करना कहा जाता है, और कहीं ‘सुखेन ब्रह्म-संस्पर्शमत्यन्त-सुखमश्नुते बाह्य संस्पर्श से अत्यन्त विरक्त, ज्ञानी का ब्रह्मसंस्पर्शजन्य लोकोत्तर सुख का भोग करना कहा जाता है। निर्विशेष चित्सुखस्वरूप ब्रह्म के संस्पर्श की कल्पना अद्भुत है। कहीं श्रुतियों ने इसे अन्य दृष्टान्त से स्पष्ट किया है, ‘तद्यया प्रियया भार्या संपरिष्वक्तो नान्तरं किञ्चन वेद न बाह्यम्।’ जैसे कान्त अपनी प्रियतमा भार्या से परिरम्भण करके प्रेमानन्द के उद्रेक में बाह्याभ्यन्तर प्रपंच को भूल जाता है, भेद में व्यवधान की आत्यन्तिक निवृत्ति नहीं होती। अतः भेदयुक्त सम्मिलन से रसिकों को सन्तोष नहीं होता। पुत्र, देह, मन, अन्तरात्मा से जितनी अन्तरंगता, व्यवधान-शून्यता उपलब्ध होती है, उतनी अधिक प्रीति व्यक्त होती है। सर्वान्तर सर्वापेक्षया सन्निहित अन्तरात्मा से ही प्राणियों को निरतिशय एवम् निरुपाधिक पर प्रेम होता है, अतः भगवान के साथ घनिष्ट प्रेम तभी होता है, जब उनकी नितान्त अन्तरंगता व्यक्त हो। अतः अभेद बोध आवश्यक होता है, फिर भी अत्यन्त अभेद में ब्रह्म से स्पर्श या प्राज्ञात्मा का परिष्वंग नहीं बनता, अतः काल्पनिक भेद और पारमार्थिक अभेद स्वीकार किया जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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