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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
साक्षान्मन्मथमन्मथः
भगवान ने कहा है कि मुझमें जिसकी बुद्धि प्रविष्ट हो चुकी है, उन लोगों का काम काम नहीं है, जैसे भर्जित किंवा क्वथित बीज अंकुरित नहीं होता, वैसे ही श्रीकृष्णविषयक काम संसार का मूल नहीं होता, यथा- ”न मय्यावेशितधियां कामः कामाय कल्पते। नायिका-नायक परस्पर मिलन का मूलभूत स्नेह विशेष ही काम है। श्रृंगाररस सभी रसों में श्रेष्ठ और सबका अंगी है। उसे उज्ज्वल रस कहते हैं। किसी पदार्थ की तृष्णा के हृदय को कण्टक के समान उद्वेजित करती है। तृष्णारूप कण्टक से व्यथित अत: चंचल मन पर, व्यापक अखण्ड अनन्त ब्रह्मानन्द का प्राकट्य नहीं होता। यहीं अभिलषित पदार्थ की प्राप्ति के, क्षणिक-तृष्णा वृत्ति की निवृत्ति से शान्त अन्तःकरण पर ब्रह्मात्मक सुख की अभिव्यक्ति होती है। नायक-नायिका के परस्पर सम्मिलन की तृष्णा सर्वातिशायिनी होती है, अत: उस समय तृष्णा से व्यथित हृदय में अशांति, चंचलता भी अधिक होती है, ऐसे अवसर में परस्पर सम्मिलन से, तृष्णा कण्टक से निकलने से, क्षणभर के लिये शान्त अन्तःकरण पर ब्रह्मानन्द के प्राकट्य की भी विशेषता रहती है। इसीलिये और रसों की अपेक्षा श्रृंगार रस की प्रधानता ह तत्पश्चात शिशुओं के समर्पण के ब्याज से एवम् दृष्टियों से प्रियतम का अंगसंग प्राप्त करके, दुरन्त भाव से भरी अन्तरात्मा से, उन्होंने अपने प्राणनाथ का परिरम्भण किया-”पत्न्यः पतिं प्रोष्य गृहानुपागतम् उत्तस्थुरारात्सहसाऽसनाशयात्। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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