भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
विभीषण-शरणागति
इसी प्रकार भूतभावन सदाशिव शंकर विश्वनाथ जी की परमान्तरंगा अनन्योपासिका पार्वती जी को सप्तर्षियों ने शंकर जी के अनेकानेक दोष बतलाकर उनसे मन हटाने और सर्वसद्गुणसम्पन्न भगवान विष्णु में मन लगाने को कहा, तब आद्यशक्ति महाचिति, अनन्तकोटि ब्रह्माण्ड जननी शिव जी की परमान्तरंग भगवती ने उत्तर दिया - “जन्मकोटि लगि रगरि हमारी, बरौ सम्भु नत रहउँ कुँआरी।।” अहा! प्रेम की बात ही निराली है। प्रेमी प्रेमपाश में बँधकर अपने जीवन को भी खतरे में डाल देता है, ,पर अपनी टेक नहीं छोड़ता। “चातक रटनि घटे घटि जाई। बढ़े प्रेम सब भाँति भलाई।।” प्रेमियों में चातक अग्रगण्य समझा जाता है। वह स्वातिबूंद को छोड़कर गंगाजल को भी, जो कि साक्षात ब्रह्मदेव है, पान करना पसन्द नहीं करता, भले ही पिपासा के कारण प्राणपखेरू उड़ जाय। पवित्रसलिला, पतितपावनी श्रीजाह्नवी के पावन तट के ऊपर किसी वृक्ष पर एक पपीहा रहता था। अचानक वह एक दिन घायल होकर गंगा जी में गिर पड़ा। गिरते समय अपने बच्चों को पुकारकर उसने कहा- ‘देखना, कहीं मेरा पिण्डदान गंगाजल से न करना।’ वह स्वयं जल में तो गिर पड़ा, किन्तु मुख में गंगाजल न चला जाय, इसलिये अपनी चोंच बन्द कर ली। यह है चातक की टेक। यदि मरणकाल में प्राणी के मुख में गंगाजल पड़ जाय, तो वह मुक्त हो जाय, किन्तु मुक्ति को ठुकराकर पपीहे ने अपने प्राण की रक्षा की। भ्रमर का भी प्रेम विचित्र है। पाषाणसदृश काष्ठ में भी छिद्र बनाकर निकल जाने का सामर्थ्य रखने वाला भ्रमर कमलकोश में बँध जाता है। एक भ्रमर था, वह कमल के भीतर बैठा मकरन्द रस का पान कर रहा था और उसमे सौगन्ध्य से मस्त हो रहा था। इतने में सन्ध्या हो आयी। सूर्यास्त होते ही कमल बन्द हो गया और मोटे-मोटे शाल और शीशम के पेड़ों को भी छेद डालने की ताकत रखने वाला भ्रमर उसके अन्दर ही रह गया और विचार करने लगा- ‘रात बीत जायगी, प्रातःकाल होगा, भगवान भास्कर की किरणर श्मियों से कमल फिर खिल जायगा, तब मैं इसमें से निकल जाऊँगा। तब तक आनन्द से मकरन्द का आस्वादन करता रहूँ।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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