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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
भगवान का मंगलमय स्वरूप
वामावर्त्त और दक्षिणावर्त्त उभय रोमराजियों के मध्य में ये भृगुचरण हैं। इन पर वक्षःस्थल में जो दिव्य मालाएँ पड़ी हैं, उनसे भगवदीय अष्टगन्धसौगन्ध्य से अतिमत्त हुए भ्रमरों की मधुर झंकार निकल रही है। नाभिप्रदेश में अति सुन्दर मनोहर तीन रेखाएँ (त्रिवलि) हैं और मध्य में यह दिव्य मनोहर सरोवर श्याम-सलिला कालिन्दी का अति विलक्षण आकर्षण वाला भँवर-सा सोह रहा है। इसी से तो सारे ब्रह्माण्ड का प्रादुर्भाव हुआ है। भगवान की भुजाएँ, भावुकों की कल्पना के अनुसार, दो भी हैं और चार भी। इनका गठन कैसा सुन्दर और कैसा गोल! और घुमाव, चढ़ाव तथा उतार भी अत्यन्त मनोहर! सर्वांग के समान इन पर भी कुंकुम-कस्तूरि का मिश्रित हरिचन्दन का शुभ्र लेप है। भुजाओं की दीप्ति-विशिष्ट नीलिमा, हरिचन्दन की शुभ्रता और करारविन्द के अन्तर्भागों की अरुणिमा तीनों मिलकर नखमणि-ज्योति के घाट पर कैसा दिव्य मनोहर गंगा-यमुना-सरस्वती का संगम साध रहे हैं। इन दिव्य मनोहर भुजाओं में शंख, चक्र, गदा, पद्म सुशोभित हैं। शंख जलतत्त्व है, कौमोदिकी गदा ओजतत्तव है, सुदर्शन चक्र तेजस्तत्त्व अथवा यदि खड्ग देखें तो नभस्तत्त्व है। भगवान के दिव्य कटितट में काँची (मेखला) है जिसकी कई लड़े हैं। कटितट से गुल्फपर्यन्त पीताम्बर परिधान धारण किये हैं जो अति सूक्ष्म और दिव्य है। उसमें से भगवान की नीलकान्तिदीप्ति स्पष्ट ही उद्भासित हो रही है। पीतपट से समाच्छन्न भगवदीय दीप्तिमत्ता और नीलिमा से युक्त वह नानाविध रत्नों से जटिल मुक्तामध्य मेखला नितम्ब-बिम्ब पर लाकर अत्यधिक सुशोभित हो रही है। काँची की बड़ी मधुर झनझनाहट है। भगवान यहाँ ज्ञान मुद्रा वाले परम शान्त गम्भीर पुरुष नहीं हैं। यहाँ तो चंचल चपल त्रिभंगी छवि वाले वंशीधर श्रीकृष्ण हैं, जिनकी चंचलता व्रजांगनाओं के अंचल पकड़ने में भी नहीं चूकती। वाह री! वह कामजित् दिव्य चंचलता, जिसको सम्बोधन कर चंचलता को प्राप्त व्रजांगना परमरसरसिकों के विनोदार्थ ही मानो यह कहती हैं कि - ”मुञ्चाञ्चलं चञ्चल पश्य लोकं बालोऽसि नालोकयसे कलंकम्। भावं न जानासि विलासिनीनां गोपाल! गोपालपनण्डितोऽसि।।“ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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