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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
भगवान का मंगलमय स्वरूप
वक्षः स्थल के मध्य में[भृगु|भगवान भृगु चरण धारण किये हैं और लक्ष्मी जी से मानो यह कह रहे हैं कि महालक्ष्मी! यहाँ जो तेरी स्थिति है वह ब्राह्मण के चरण से ही है। यह हृदय ‘हतांहस’ होने के कारण ही चंचला लक्ष्मी यहाँ अचला है। भगवान के वक्षःस्थल पर रहने वाले ब्राह्मण चरण और महालक्ष्मी दोनों ही एक स्वर से मानो यह कह रहे हैं कि जहाँ ब्राह्मणों के चरणों की रज पड़ेगी वहीं चंचला लक्ष्मी स्थिर हो जायगी। लक्ष्मी वहाँ नहीं ठहरती जहाँ ज्ञान, विद्या, तप आदि नहीं है, क्योंकि ज्ञान, विद्या, तप, भूति आदि लक्ष्मी के ही रूप हैं। अर्थात श्रीभगवान मानो यह सूचित करते हैं कि जहाँ ब्राह्मण-चरण निवास करेंगे वही श्रीनिवास होंगे और वहीं सकल प्रकार की श्री का निवास होगा। भगवान के दिव्यातिदिव्य कमल से सुकोमल वक्षःस्थल में ब्राह्मण के चरण कठोर नहीं प्रतीत हुए। उलटे भगवान को यह क्लेश हुआ कि इस वक्षःस्थल की कठोरता से भृगु महाराज के सुकोमल चरणों में कुछ चोट तो नहीं आयी। कारण, लक्ष्मी का जहाँ निवास होता है वहाँ हृदय में कठोरता आ जाती है। ब्राह्मण इस कठोरता पर पैर देकर भगवान की स्तुति करते हैं, यही ब्राह्मणों का ब्राह्मणत्व है। यह कठोरतारूप-अहंस भृगु-चरणों से धुला है और जहाँ कहीं यह अंहस है वहाँ वह ब्राह्मणचरणों से ही धुल सकता है और महालक्ष्मी जी का जो दिव्यातिदिव्य सुकोमल भाव है वह प्रकट हो सकता है। इस दिव्य मंगलमय विग्रहरूप में अचिन्त्यानन्द ब्रह्मानन्द-सुधासिन्धुस्वरूप परमतत्त्व भगवान ही श्यामीभूत होकर प्रकट हुए हैं। इनके गले में वक्षःस्थल पर गुन्जाहार पड़ा हुआ है। ये गुन्जाएँ कोई प्राकृत गुन्जाएँ नहीं हैं, ये सब परम तपस्वी महामुनि हैं जिन्होंने इस पुण्यारण्य वृन्दावनधाम में भगवदीय लीला में योग देने के लिये गुन्जारूप धारण किया है। यहाँ मयूरपिच्छादि को भी भगवान ने अपना दिव्यातिदिव्य धाम दिया है। इस वृन्दावन लीलाधाम की विलक्षण महिमा है, जिसे देखकर ब्रह्मा भी यहाँ ‘गुल्मलतौषधी’ बनकर निवास करने की इच्छा करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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