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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
भगवान का मंगलमय स्वरूप
भगवान के नेत्रों की अरुणिमा के साथ कमलकोशगत अरुणिमा का सादृश्य देखकर ‘गोपीगीत’ में ऐसी कल्पना की गयी है कि भगवान मानो इस अरुणिमारूप दिव्यातिदिव्य श्री को दिव्यकमलों के सम्राट् के अभेद्य दुर्ग को भेदकर अति सुरक्षित अति गुप्त कोष से चुरा लाये हैं- दिव्यातिदिव्य कमल सम्राट को यह पूरी खबर थी कि ये चौर-जारशिखामणि एक-एक अंग चोरी करने वाले हैं। यह कहीं मेरी श्री न हर लें जो सर्वोत्कृष्ट है। इस भय से यह पंकज सम्राट जल में जाकर रहे। पर जल में श्रीकृष्ण कहीं जलक्रीड़ा करने आ जायें, इसलिये उन्होंने जल में भी ग्रीष्म ऋतु को परित्याग करके शरन्निवास ही ग्रहण किया और इस शरत्कालीन जलाशय में भी अपने आपको छिपाने के लिये अपने चारों ओर अनन्त कमल उत्पन्न करके उनका पहरा बैठा दिया। इन कमल सैनिकों की रक्षा के लिए प्रत्येक को शत-शत पत्र तथा नाल और नालों में काँटे देकर ऐसा जलदुर्ग निर्माण किया कि कहीं से भी कोई घुस न सके। फिर ऐसे अभेद्य दुर्ग के बीच चारों ओर से सुरक्षित स्थान में आप जा विराजे। फिर भी श्री को श्रीकृष्ण ले तो नहीं जायेंगे, यह भय बना ही रहा। इसलिये उस श्री को उस पंकज सम्राट ने स्वयं चारों ओर से सुरक्षित होकर भी अपने कोश-स्वरूप उदर में छिपा रखा जैसे कोई कृपण अपने धन को छिपा रखता है। पर भगवान ऐसे चतुर चौरचक्रवर्ती कि उनके नेत्रारविन्द वहाँ से भी उस कमल-कुलपति को परम दुर्लभ सम्पत्ति को चुरा ही ले आये। यह चोरी भगवान की इतनी अद्भुत और भावुकों के लिये इतनी मधुर है कि गोपियाँ बड़े प्रेम से इसके गीत गाती फिरती हैं। तभी तो भावुकों ने कहा है- “मधुराधिपतेरखिलं मधुरम्।।” अस्तु, पद्मगर्भारुणेक्षण भगवान के इन ‘पद्मगर्भारुण’ नेत्रों में स्वच्छता और अरुणिमा का अद्भुत पारस्परिक सम्मेलन है। और नेत्रान्तःपाती जो तारक हैं वे श्याम हैं। इस प्रकार नेत्रारविन्द में त्रिवेणी संगम हुआ है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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