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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
भगवान का मंगलमय स्वरूप
कपोल और चिबुक अपने दिव्य सौन्दर्य से मानो यही कह रहे हैं कि अनन्तकोटि ब्रह्माण्ड के सारातिसार सौन्दर्य का परमोद्गम-स्थान यही है। यही अचिन्त्य सौन्दर्यसुधानिधि है जिसका केवल एक कण अनन्तकोटि ब्रह्माण्ड में विस्तीर्ण है। बालसूर्य की सुकोमल किरणों से संसृष्ट विकसित कमल का अग्रोर्ध्व-भाग जैसे स्वच्छतामय होता है वैसे कपोल और चिबुक पर इस नील विकसित मुखाम्बुज को दीप्तिमत्ता अन्य अंगों की अपेक्षा कुछ विशेष है। नील कमल के केशर का सान्निध्य छोड़कर जो नीलिमा युक्त अंश हैं वे बाल-सूर्य की सुकोमल किरणों से संसृष्ट होकर अधिक दीप्त होते हैं, वैसे ही भगवान के कपोल और चिबुक विशिष्ट दीप्तिमत्ता-सम्पन्न हैं। विशाल मस्तक पर शोभायमान दिव्य किरीट की जगमगाती हुई दिव्य कान्ति इन उन्नत अंगों पर उच्च स्थल पाकर अधिक मात्रा में अवतीर्ण और विस्तीर्ण हो रही है तथा वह सौन्दर्य-सुधा उभय कपोलप्रान्त से भी अधिक चिबुक पर आकर परम विकसित और मनोरम हुई है। अरुण कमल के समान प्रभु के दिव्य नेत्रों के सम्बन्ध में ऐसा ध्यान है कि कपोलप्रान्त जैसे-जैसे नेत्रों के सन्निहित है वैसे-वैसे उनमें अधिकाधिक विशिष्ट दीप्तिमत्ता युक्त अरुणिमा है और कपोलाभिमुख नीचे की ओर क्रमशः दीप्ति विशिष्ट नीलिमा है और अरुणिमा की न्यूनता है। खास नेत्र अरुण हैं; यहाँ स्वच्छता और अरुणिमा मानो अरुणिमारूप रज से भगवान अपने भावुकों के अभीष्ट का सृजन और स्वच्छतारूप सत्त्व से पालन करते हैं। नेत्रों में स्वच्छता और अरुणिमा का ऐसा तारतम्य है कि अनुकम्पा, राग आदि मानस विकृतियों की जहाँ अभिव्यक्ति है वहाँ अरुणिमा अधिक होती है और जहाँ रागादिरहित प्रसन्नता है वहाँ स्वच्छता अधिक होती है। कोपादि तापक भावों से अरुणिमा की अधिक वृद्धि होती है। कोई अरुणिमा अग्नि सदृश है। व्रजांगनाओं के स्वच्छातिस्वच्छ नेत्रों में जो अरुणिमा है, वह हृच्छयाग्नि की अरुणिमा है। उसी की शान्ति के लिये वे भगवान के नीलपादाम्बुज को नीलरज का अंजन लगाती है। भगवान के नेत्रों में कमलकोश की-सी अरुणिमा है और उनके विशाल नेत्र कर्णप्रान्तपर्यन्त दीर्घ हैं। इनकी कल्पना भावुक ही कर सकते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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