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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
भगवान का मंगलमय स्वरूप
यही संगम कुछ विलक्षण रूप से नेत्रों की पलकों में भी हुआ है; पलकें अत्यद्भुत दीप्तियुक्त नीलिमा लिये हुई हैं और किंचित् अरुणिमा का भी इनमें योग हुआ है। ऐसे दिव्य विशाल नेत्र कर्णप्रान्त तक विस्तीर्ण हैं। दोनों नेत्रों के मध्य से नीचे की ओर ऊर्ध्वोन्मुख उन्नत दिव्य नासिका कीरतुण्ड सी शोभा पा रही है, जिसकी दीप्ति दिव्य गण्ड-स्थल की-सी ही जगमगा रही है। नासिका में एक वर-मौक्तिक भी सुशोभित है। नासिका की दीप्तियुक्त नीलिमा होठों की विलक्षण अरुणिमा से मिलकर अति विलक्षण मनोहारित्व व्यक्त कर रही है। कुन्दकुड्मल की-सी दिव्य दशन-पंक्ति की स्वच्छता अरुण अधरों पर और अधरों की अरुणिमा दिव्य दशन-पंक्ति पर प्रतिबिम्ब होकर एक बड़े ही दिव्य आदान-प्रदान का भाव दिखा रही हैं। अधरों से बढ़कर शोभा और किसी की नहीं। सकल-सुधानिधि भगवान की यह दिव्य अधरसुधा है। व्रजांगनाओं का इसी पर सबसे अधिक प्रेम है। यह पीतिमा दिव्य मकराकृत कुण्डलद्वय से आकर यहाँ झलक रही है। ये कुण्डल अद्भुत दीप्ति-सम्पन्न हैं और यह दीप्ति पीतिमा लिये हुई हैं। गोस्वामी तुलसीदास जी ‘रामगीतावली’ में भगवान के चंचल कुण्डलद्वय की दीप्तिमत्ता, शोभा और चंचलता का वर्णन करते हैं कि ये दोनों कुण्डल शुक्र और गुरु से चमक रहे हैं। इनकी चंचलता यह बतलाती है कि ये भगवान के मुखचन्द्र-रूप चन्द्रमा को मध्यस्थ करके कोई विलक्षण शास्त्रार्थ कर रहे कुण्डल अत्यधिक देदीप्यमान हैं और इनके सुवर्ण शरीर में दिव्यातिदिव्य नानाविध रत्न जड़े हुए हैं। ये मकराकृति हैं- मानो मकरध्वज (काम) को लड़कर जीतने के लिये ही कुण्डलों ने यह आकार धारण किया है। भगवान का मधुरमन्दहासोपेत कटाक्षयुक्त दिव्यातिदिव्य मुखारविन्द नेत्रवालों का परम सौख्यमय विश्राम-स्थान है। नन्दनन्दन श्रीवृन्दावनचन्द्र का यह मुखारविन्द भगवान के वदनारविन्द का सौन्दर्य-सौन्दर्याधिकरण, यहाँ एक दूसरे से भिन्न नहीं। पर यह सौन्दर्य माधुर्यमय परम रस ही है। भगवान का वक्षःस्थल साक्षात श्री का निवास है, मुखारविन्द नेत्रवालों ने नेत्रों का रससुधापानमात्र है, भुजाएँ लोकपालों के बल का आश्रय स्थान और पदाम्बुज सारतत्त्व के गाने वालों का परम राग है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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