भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीकृष्ण-जन्म
व्रजरानी में प्रस्फुरित होने से ही कृष्ण का लोक में भी वैसे ही स्फुरण हुआ, जैसे स्फटिक-घटी में रहने वाला दीपक भीतर-बाहर सर्वत्र प्रकाश करता है- “व्रजराज्ञ्यां स्फुरितात्मा कृष्णः स्फुरति स्म लोकेऽपि। यद्यपि नन्दरानी रसना-रस के जीतने वाले धैर्य से युक्त और गाम्भीर्यादि गुणों में अत्यन्त प्रवीण थीं, फिर भी कृष्णावेश से तुलसी-संस्कृत घृत और सितायुक्त स्वच्छ परमान्नरूप दोहद की उन्हें इच्छा होने लगी। उधर योगमाया ने देवकी के साप्तमासिक गर्भ को आकर्षित करके रोहिणी में रख दिया। फिर रोहिणी ने श्रावण से पहले श्रवण नक्षत्र में गौर सुन्दर कुमार को उत्पन्न किया। जैसे पौर्णमासी पूर्ण चन्द्र को प्रकट करती हैं, सिंहवधू विक्रमी शावक को उत्पन्न करती है, वैसे ही रोहिणी ने बलराम को प्रकट किया। उस बालक के अंग की कान्ति सूर्य की कान्ति को लज्जित करती थी, मुखकान्ति चन्द्रमा की कान्ति को लजाने वाली थी। महाप्रभावशाली वह बालक अन्य समय में अत्यन्त जड़-सा ही दिखायी देता था, परन्तु कृष्ण को गर्भ में धारण करने वाली नन्दरानी जब उसको अपनी गोद में लेती थी, तभी बालक को विश्रान्ति और प्रसन्नता होती थी। अनन्तर, परम शुभ काल में कृष्ण का प्रादुर्भाव हुआ। ललितस्मित नील कमल के समान मुख, सूक्ष्म भ्रमर से चित्रित कैरव-कोश के समान नेत्र, मधुर श्यामल तिलप्रसून के समान नासिका, सिन्दूर-गिरि-समुद्भूत जवाकुसुम और बिम्बाफल के सदृश ओष्ठ और अधर थे। अंजनभूमि-समुद्भूत श्याम लता-पत्र के समान कान, नवपल्लवयुक्त नव तमाल-शाखा के समान दोनों ही श्रीहस्त, कोमल मृणालतन्तु सदृश रोमों की दक्षिणावर्तराजि से लांछित दक्षिण वक्षःस्थल और सुवर्णवर्ण रोमों की वामावर्त्तराजि से लांछित वाम वक्षःस्थल, विद्युत् से आश्लिष्ट श्यामल मेघ-खण्ड के समान सुशोभित होता था। वह बालकृष्ण अपने मुख से महापद्म को, नयनों से पद्म को, नासिका से मकर को, स्मित से कुन्द को, कण्ठ से शंख को, चरणपृष्ठों से कच्छप को और दीप्ति से इन्द्रनील को जीतने वाले थे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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