भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीकृष्ण-जन्म
भूषणों को भी विभूषित करने वाले अंगों को मणिमय प्रांगण में प्रतिबिम्बित देखकर कृष्ण स्वयं मुग्ध होकर उससे मिलने के लिये उत्सुक हो उठते थे- “रत्नस्थले जानुचरः कुमारः संक्रान्तमात्मीयमुखारविन्दम्। कुछ महानुभावों का कहना है, श्रीभगवान का सम्बन्ध केवल प्रेम-निबन्धन ही है। तभी कहा है- “भक्त्याऽहमेकया ग्राह्यः” भगवान केवल भक्ति से ही ग्राह्य होते हैं। जो जिस भाव से प्रभु को भेजते हैं, प्रभु भी उन्हें वैसे ही प्राप्त होते हैं, अतः श्रीमन्नन्दराय एवं नन्दरानी के भावानुसार प्रभु वात्सल्य-प्रेमानुकूल उनकी पुत्रता को प्राप्त हुए। श्रीवसुदेव जी को भी वात्सल्य-रस प्राप्त था, परन्तु सूतिका-गृह में ही भगवान के ऐश्वर्यपूर्ण रूप को देखने से उनमें वात्सल्य-रस का उतना तारल्य नहीं रह गया था, किन्तु श्रीमन्नन्दराय में सर्वदा समुद्बुद्ध अत: सर्वदा ही शुद्ध वात्सल्य-रस रह गया था। वसुदेव और देवकी ने भगवान को मन से ही पुत्रत्वेन धारण किया था, यह बात अग्रिम वचनों से ज्ञात होती है। “आविवेशांशभागेन मन आनकदुन्दुभेः” अर्थात अंशभाग से भगवान आनकदुन्दुभि के मन में प्रविष्ट हुए। “दधार सर्वात्मकमात्मभूतं काष्ठा यथानन्दकरं मनस्तः।” अर्थात जैसे पूर्वा दिक आनन्दकर चन्द्रमा को धारण करती है, वैसे ही देवती ने मन से ही सर्वान्तरात्मा कृष्ण को धारण किया। जैसे वसुदेव-देवकी ने मन से ही कृष्ण को धारण किया था, वैसे ही श्री व्रजराज और व्रजरानी ने भी पुत्रत्वेन उन्हें धारण किया था। इसीलिये कहा जाता है कि माघ शुक्ल प्रतिपद् की सर्व-सुखसम्पन्न रजनी में श्री व्रजराज की सेवा करती हुई, यशोदा ने तन्द्रा में स्वप्न के समान कुछ चमत्कार देखा। जिस कुमार को पहले देखा था, वही किसी सर्वावरणकारिणी दिव्य कुमारी से अपने को आवृत करके व्रजराज के हृदय से निकलकर उनके हृदय में प्रविष्ट हुए। बालक हृदय में विराजमान हुआ और कन्या उदर में। वह उसी समय से नन्दरानी में गर्भ-लक्षण दिखलायी देने लगी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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