भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
प्रेमतत्त्व
वशिष्ठ कहते हैं- “प्राण प्राण के, जीव के जिय...... तुम तजि जिनहिं सुहात गृह, तात तिनहिं विधि बाम।” अर्थात हे तात! राघवेन्द्र रामभद्र! तुम्हीं तो प्राणों के प्राण, जीवों के जीवन और आनन्द के भी आनन्द हो। प्राण से या अपान से प्राणी नहीं जीता, किन्तु प्राणी में प्राणन शक्ति देने वाला प्राण का भी प्राण भगवान ही सबको जिलाता है। फिर तुमको छोड़कर जगत किसे अच्छा लगे? इस दृष्टि से रावणादि भी राम के भक्त ही हैं। भला अपनी सत्ता का कौन विरोधी होगा? नास्तिक भी अपनी और अपने सिद्धान्त की सत्ता का बाध या अपलाप नहीं चाहता या करता। हर एक व्यक्ति का निश्चय है कि और कुछ हो या नहीं, रहे या न रहे, मैं तो हूँ ही, मैं तो रहूँ हो। जैसे जल के बिना तरंग क्षणभर भी टिक ही नहीं सकती, वैसे ही सत्ता के बिना सम्पूर्ण पदार्थ असत् हो जाते हैं। सत्, चित्, आनन्द रसस्वरूप भगवान के बिना सब निःस्फूर्ति, नीरस, निरानन्द, किंबहुना असत् हो जाते हैं। उनके योग से ही-आध्यात्मिक सम्बन्ध से ही-स्फूर्तिमत्ता, सरसता, सानन्दता और अस्तित्व सिद्ध होता है। अतः उनका अमंगलमय वियोग किस सह्य होगा? जैसे गुड़ के सम्बन्ध से नीरस बेसन में मिठास आती है, वैसे ही ‘स्व’ के सम्बन्ध से-अपनेपन के सम्बन्ध से-वस्तुओं में प्रीति होती है। अपनेपन के बिना कट्टर वैष्णवों को भगवान शिव में और शैवों को विष्णु में भी प्रेम नहीं होता। अनन्त ब्रह्माण्डनायक भगवान के ही जिस रूप में अपनापन, अपना उपास्यभाव, होता है, उसी में प्रेम होता है। जिसमें उपास्यबुद्धि, इष्टबुद्धि नहीं, जिसमें अपनापन नहीं, उसमें प्रेम भी नहीं। अपनापन होने से अपने क्षेत्र, वृक्ष की बाग के काँटों में भी प्रेम होता है, उनके नष्ट होने में कष्ट होता है। जिस अपनेपन के बिना ब्रह्म भी नीरस, जिस अपनेपन के सम्बन्ध से कण्टकादि में भी प्रेम, साक्षात् उस अपने में, “स्व” में प्राणी का कितना प्रेम हो सकता है? इसीलिये भगवान प्राण के प्राण, जीव के जीवन, आनन्द के आनन्द, प्रत्यक्ष स्वात्मा है, अत: प्रेम या रसस्वरूप ही है। जो वस्तु जितनी अप्रत्यक्ष, दूर और अपने से भिन्न हैं, उसमें उतनी ही प्रेम को कमी होती है। क्षेत्र, मित्र, पुत्र, कलत्र आदि में दूरस्थ, अप्रत्यक्ष तत्त्वों की अपेक्षा अधिक प्रेम होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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