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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
भगवच्छरणागति से ही गति
महात्मा ने कहा- “अब घबड़ाओ नहीं, तुम्हारा कल्याण होने ही वाला है। मुझे तो समय नहीं है, तुम यहाँ से समीप ही महात्मा दान्त रहते हैं, उनके पास चले जाओ।” वह गया और महात्मा से अपनी स्थिति बतलायी। महात्मा ने उसे भगवान की उपासना बतलायी। वह बड़ी तत्परता से भगवान की उपासना में लग गया। बहुत ही थोड़े दिनों में भगवान प्रत्यक्ष हुए और प्रसन्न होकर उन्होंने उसके सब पापों को नष्ट कर दिया और उसे अपना मित्र बना लिया। फिर भी उसे दिनोंदिन दुर्बल होते देखकर भगवान ने कहा- “मित्र! तुम दिनोंदिन दुर्बल क्यों हो रहे हो? देखो, तुम हमारे मित्र होकर फिर चिन्तित क्यों हो?” उसने कहा- “भगवान! मुझे हर समय डर लगा रहता है कि मुझसे कहीं कोई ऐसा अपराध न बन जाय कि प्रभु की मैत्री से मैं वंचित हो जाऊँ।” भगवान ने कहा- “मित्र! मेरी मैत्री ऐसी चंचल नहीं होती। मैं जिससे मैत्री जोड़ता हूँ, उससे अटल मैत्री रखता हूँ, अतः तुम निश्चिन्त रहो और खूब निश्चिन्तता के साथ भूषण, वसन, अलंकार से विभूषित, सुसज्जिति एवं अलंकृत होकर रहो। यहाँ तक कि तुम्हें मैं अपने समान ही पीताम्बर, कटक, मुकुट, कुण्डलादि प्रदान करता हूँ, तुम सर्वथा निश्चिन्त होकर मेरे समान ही रहा करो।” उसने प्रभु की आज्ञा शिरोधार्य की और प्रसन्नता के साथ रहने लगा। अधिक साजबाज के साथ रहते देखकर गुरु ने एक दिन कहा कि “भाई”! तुम कैसे हो गये? क्या फिर अपने पूर्वरूप पर ही आ गये?” उसने कहा- “गुरुदेव! आपने जिसका भजन बतलाया है, यह सब उसी के आदेशानुसार हो रहा है।” गुरुदेव का आश्चर्य हुआ कि मैं तो सहस्रों वर्षों से तप कर रहा हूँ, मुझे भगवान के दर्शन तक न हुए, इसे इतनी शीघ्रता से भगवान कैसे मिल गये? दान्त ने कहा- “अच्छा, हमें भी मिलाओ।” भद्रतनु ने कहा- “बहुत अच्छा”। भगवान से मिलते ही उसने कहा- “मित्र! तुमने जन्मान्तरों में मेरी प्राप्ति के लिये बड़ी तपस्या की थी, केवल इतना काम प्रतिबन्ध ही अवशिष्ट था, उसके मिटते ही मैं शीघ्र ही तुम्हें मिल गया, परन्तु तुम्हारे गुरुदेव को तो अभी बहुत जन्मों तक तपस्या करनी पड़ेगी।” |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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