भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
भक्तिरसामृतास्वादन
भक्तकल्पपादप भगवान के सभी गुण भक्तोपयोगी ही हैं। सर्वशास्त्र तात्पर्यं विषय कर्मं-उपासना-तत्त्वज्ञानादि समाराध्य भगवान ही मुक्तोपसृप्य हैं, यह तत्तत्स्थलों में कहा ही गया है। “ममुक्षुर्वै शरणमहं प्रपद्ये”, “यमेवैष वृणुते तेन लभ्यः”, “तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये”, “आत्मक्रीड आत्मरतिः” इत्यादि श्रुतियों एवं स्मृतियों में मुमुक्षु और भक्तों के लिये भगवच्छरणागति ही बतलायी गयी है। उपक्रमोपसंहारादि तात्पर्य निर्णायक षड्विध लिंगों द्वारा “आत्मनस्तु कामाय सर्वं प्रियं भवति”, “रसो वै सः” इत्यादि श्रुतियों का तात्पर्य रसात्मक, प्रत्यक् चैतन्याभिन्न परब्रह्म में ही पर्यवसित होता है। अन्य विषयक अनुरागाधीन विषयता, प्रेम की गौणता तथा अन्य विषयक अनुरागाधीन विषयत्ता ही प्रेम अन्यार्थ नहीं है, अतः आत्मा सुखरूप है। सुख आत्मा से भिन्न दूसरी वस्तु है, इसीलिये आत्म सम्बन्ध से ही सुख की कामना होती है, यह कहना ठीक नहीं। भ्रान्तिवशात् वैषयिक सुख ऐसा प्रतीत भी हो‚ तो भी परमार्थतया परम सुख आत्मरूप ही है। वैषयिक सुख को ही लक्ष्य करके “परिणाम-तापसंस्कारगुणवृत्तिविरोधात् सर्वमेव दुःखं विवेकिनः” यह श्रीमहर्षि पतंजलि का और ‘विषमिश्रित’ मधुर, मनोहर पक्वान्न के समान दुःखमिश्रित सुख हेय है, यह नैयायिकों का कहना है। “एष ह्येवानन्दयति”, “मात्रामुपजीवन्ति”, “रसं ह्येवायं लब्ध्वानन्द भवति” इत्यादि श्रुतियाँ लौकिक वैषयिक सुख को उसी सुखस्वरूप आत्मा का अंश बतला रही हैं। स्वानुकूल विषय की प्राप्ति में अन्तःकरण की वृत्ति अन्तर्मुख, शान्त, अचंचल होती है। सत्त्वोद्रेक होने से प्रतिबिम्बतया वहाँ स्वात्मानन्द ही अभिव्यक्त होता है। विषय निबन्धन एवं वृत्तिरोध के क्षणिक होने से सुख को वैषयिक, क्षणिक आदि कहा जाता है। “आनन्दं ब्रह्मणो विद्वान्न बिभेति कुतश्चन” इत्यादि श्रुतियों द्वारा तत्त्व साक्षात्कार मूलक परिणाम के कारण दुःख से अमिश्रित सुख होने से ब्रह्मात्म सुख प्राप्ति कही गयी है। इसीलिये आत्मा ही रस है, ऐसा सिद्धान्त है। यहाँ पर आनन्द शब्द से प्रत्यक्चैतन्याभिन्न परब्रह्म ही लिलक्षयिषित है, क्योंकि उसी में उपक्रमोपसंहारादि द्वारा रसात्मताबोधक वचनों का तात्पर्य निश्चित होता है। अग्नि के अंश विस्फुलिंग के समान या सिन्धु के अंश बिन्दु के समान विशिष्ट, सोपाधिक चिदाभास, चित्प्रतिबिम्ब, चित्कण या समवच्छिन्न जीव निरतिशय रसरूप नहीं, क्योंकि यदि वहाँ पूर्णानंदता तिरोहित है। तटस्थ परब्रह्म परमात्मा भी निरितय सुखरूप नहीं, क्योंकि यदि वह प्रत्यक् चैतन्य स्वरूप न हुआ, तो साक्षात-परोक्ष भी न होगा, फिर उसकी स्वप्रकाशानन्द रसरूपता तो अत्यन्त दूर है। इसलिये न चाहने पर भी प्रत्यक्चैतन्याभिन्न परब्रह्म की ही रसरूपता माननी पड़ेगी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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