भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
भक्तिरसामृतास्वादन
कुछ लोगों का कहना है कि नारद जी को आकाश से उतरते हुए देखकर जब वे दूर थे, तब द्वारकावासियों ने कल्पना की कि यह कोई महातेजःपुंज है। कुछ और समीप आने पर शरीरवान् प्राणी समझा और अधिक समीप आने पर अवयव की स्पष्ट प्रतीति से कोई पुरुष है ऐसा जाना। अधिक निकट होने पर उन्हें नारद जी का स्पष्ट ज्ञान हुआ-
इसी तरह दूर रहने पर ब्रह्म और समीप होने पर परमात्मा और अत्यन्त समीप होने पर भगवान का ज्ञान होता है। किन्तु यह कहना भी ठीक नहीं, क्योंकि सर्वान्तरतम ब्रह्म, परमात्मा या भगवान में सामीप्य-असामीप्य निबन्धन तारतम्य नहीं हो सकता। अतः निष्कर्ष यह निकला कि एक ही नित्य, निरतिशय बृहत्तम ब्रह्म आत्माओं की भी आत्मा होने से परमात्मा और गुणगण सेव्य होने से भगवान कहा जाता है। सकल सच्छास्त्रतात्पर्यगोचर, अशेषविशेषातीत, निर्गुण, निराकार, सच्चिदानन्दघन अपनी अचिन्त्य, मंगलमय, दिव्यशक्ति से अनन्तकल्याण गुणगणाकर, अनन्तकोटिकन्दर्पसुन्दर, शक्रशतकोटिविलासशाली, नभःशत्कोटिमहाविस्तारशाली, वायुशतकोटिविपुल-बलशाली, रविशतकोटिप्रखर-प्रकाशशाली, शशिशतकोटि-सुशीतल, कालशतकोटिदुस्तर, अमितकोटितीर्थ-पावनाभिधान, मेरुशतकोटिनिश्चल, समुद्रशतकोटिगम्भीर, कामधेनुशतकोटि कामपूरक, शारदाशतकोटि विधिशतकोटि सृष्टि-निपुण, विष्णुशतकोटि पालक, रुद्रशतकोटि संहारक, धनद कोटि, शतैश्वर्यसम्पन्न, मायाकोटिशत अघटितघटनापटीयान्, शेषशतकोटि धारक, भगवान की अनन्तकोटि आदित्यगणों की प्रकाश-प्राखर्यादि में से भी, वैसे ही उपमा नहीं दी जा सकती, जैसे कि अनन्तकोटि खद्योतों से आदित्य की उपमा। इसीलिये अशेषविशेषातीत, अनन्तकल्याण गुणगणाकर भगवान की स्तुति में ब्रह्मादिकों का भी असामर्थ्य सुना जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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