भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
भक्तिरसामृतास्वादन
इत्यादि वचनों की संगति लगती है। रसात्मकप्रेम रसस्वरूप ही है। कहा भी गया है कि प्रादुर्भाव के समय जिसने जरा भी हेतु की अपेक्षा नहीं की, जिसके स्वरूप में अपराध परम्परा से हानि एवं प्रणाम परम्परा से वृद्धि नहीं होती, जो अपने निजी रसास्वाद के सामने अमृतास्वाद को भी तुच्छ कर देता है, और जो तीनों लोक के दुःख का विनाश करता है, उस महान प्रेम को वाणी का विषय बनाकर ओछा क्यों किया जाय-
“कामं भवःस्ववृजनैर्निरयेषु नः स्यात् चेतोऽलिवद्यदि नु ते पदयो रमेत।” ;“देवानां गुणलिंगानामानुश्रविककर्मणाम्।
यह वचन प्रमाण है। इसका निष्कृष्ट अर्थ यही है कि- आनुश्रविक (वेदिक) कर्मों से आराध्य सत्त्व आदि गुणवाले देवताओं के मध्य में सत्त्वोपाधिक विष्णु में जो स्वाभाविकी मनोवृत्ति है, उसे निर्गुण भक्तियोग कहते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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