भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
भक्तिरसामृतास्वादन
यद्यपि वेद एवं तदनुकूल शास्त्रों ने भगवान के राम, कृष्ण, शिव, विष्णु आदि जिन स्वरूपों की उपासना बतलायी है, उन सबकी भक्ति रसस्वरूप ही है, तथापि सभी रस सरलता से साक्षात् कृष्ण में ही संगत होते हैं। इसीलिये भक्ति रसायनकार ने विशेषतया 'मुकुन्द' पद ग्रहण किया है- “परममिह मुकुन्दे भक्तियोगं वदन्ति।” भक्तिरस के आलम्बनविभाव सर्वान्तर्यामी, सर्वेश्वर भगवान ही हैं यह आगे स्पष्ट किया जायगा। विशेष प्रेम-निरूपण के प्रसंग में बतलाया गया है कि भगवद्धर्म से द्रुतचित्त में प्रविष्ट स्थिरगोविन्दाकारता ही भक्ति है- “द्रुतेचित्ते प्रविष्टा या गोविन्दाकारता स्थिरा सा भक्तिरित्यभिहिता ।”[1] कर्म, उपासना, ज्ञान का अवगम कराने वाले सभी शास्त्रों का तात्पर्य अन्तः- करणशुद्धयर्थ मलविक्षेपनिवृत्तिपूर्वक भगवदुपासना एवं भगवत्स्वरूपज्ञान द्वारा परमपुरुषार्थरूप भक्ति में ही है। कहा भी है कि यदि द्रवावस्थापन्न चित्त नित्यबोधसुखात्मा विभु भगवान को ग्रहण कर ले, तो क्या अवशेष रह जाय?- “भगवन्तं विभुं नित्यं पूर्ण बोधसुखात्मकम्। यद्गृह्लाति द्रुतं चित्तं किमन्यदवशिष्यते।।”[2] विषय में चित्त की कठोरता एवं भगवान में द्रवता होनी चाहिये- “काठिन्यं विषये कुर्याद् द्रवत्वं भगवत्पदे।” आनन्द से ही अखिल भूतनिकाल का प्रादुर्भाव, आनन्द से ही जीवन एवं आनन्द में ही उपसंहार होता है- “आनन्दाद्धयेव खल्विमानि भूतानि जायन्ते आनन्देन जातानि जीवन्ति आनन्दं प्रयन्त्यभिसंविशन्ति।” अतः समस्त प्रपंच परमानन्द रसस्वरूप ही है। किन्तु स्वप्नादि प्रपंच के समान बाध्य होने के कारण भगवत्स्फूर्ति होने परजब प्रपंच निवृत होता है, तब भगवद्रूप ही अवशेष रहता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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