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तत्त्वज्ञ का अद्वैतात्मना अवस्थिति और भगवान का भजन दोनों ही समान है। तत्त्वज्ञानी होने पर भी व्यवहार में भेदभाव से भगवान का भजन वैसे ही सरस है, जैसे प्रियतमा का घूँघटपट की ओट से प्रियतम का वीक्षण-
- “प्रियतमहृदये वा खेलतु प्रेमरीत्या पदयुगपरिचर्यां प्रेयसी वा विधत्ताम्।
- विहरतु विदितार्थो निर्विकल्पे समाधौ ननु भजनविधौ वा तुल्यमेतद् द्वयं स्यात्।।”
- “विश्वेश्वरोऽपि सुधिया गलितेऽपि भेदे भावेन भक्तिसहितेन समर्चनीयः।
- प्राणेश्वरश्चतुरया मिलितेऽपि चित्ते चैलाञ्चलव्यवहितेन निरीक्षणीयः।।”
जैसे अयस्कान्त मणि में लोह के आकर्षण करने की विचित्र सामर्थ्य होती है, वैसे ही भगवान में आत्मारामों के आकर्षण करने की सामर्थ्य होती है। इसी दृष्टि से सनकादि, शुकादि के समान कितने ही परमहंस, महामुनीन्द्र भगवान के स्वरूप माधुर्य एवं सरस चरित्रों द्वारा खिंच जाते हैं-
- “तस्यारविन्दनयनस्य पदारविन्दकिञ्जल्कमिश्रतुलसीमकरन्दरेणुः।
- अन्तर्गतः स्वविवरेण चकार तेषां संक्षोभमक्षरजुषामपि चित्तततन्वोः।।”
अरविन्दनयन भगवान के श्रीचरणारविन्द किञ्जल्कमिश्रतुलसीदलमकरन्द के हृद्गत होते ही सनकादिकों के निर्विकार मन में भी क्षोभ हो गया।
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