भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
ज्ञान और भक्ति
स्वस्वरूपभूत परमानन्द से भरपूर चित्तवाले तथा निरस्त समस्त द्वैतजाल श्रीशुक्राचार्य भी भगवान की लीलाओं पर मुग्ध होकर आकर्षित हो उठे और की तो कौन कहे, स्वयं अनन्तकोटिब्रह्माण्डनायक श्रीभगवान ही अपने विचित्र सौन्दर्य, माधुर्य में मुग्ध हो जाते हैं-
भगवान अपनी अचिन्त्य, अद्भुतयोगमाया के बल से भूषणों को भी भूषित करने वाले मंगलमय श्रीअंग को धारण करते हैं, कि जिससे वे स्वयं मोहित हो जाते हैं, उन्हें स्वयं विस्मय होने लगता है। लोकपालकिरीटकोटीडितपादपीठ असाम्यातिशय, प्रभु जिस समय श्रीमन्नन्दरानी के मणिमयस्तम्भों या प्रांगण में प्रतिबिम्बित अपनी ही श्रीमूर्ति को देखते हैं, उस अपने ही सौन्दर्य माधुर्य पर मुग्ध होकर, उसके परिरम्भण के लिये व्यग्र हो उठते हैं और उसमें असफल होने पर श्रीअम्बा का वदन विलोककर रुदन करने लगते हैं- “रत्नस्थले जानुचरः कुमारः संक्रान्तमात्मीयमुखारविन्दम्। आदातुकामस्तदलाभखेदान्निरीक्ष्य धात्रीवदनं रुरोद।।” फिर योगीन्द्र मुनीन्द्रगण उस पर मुग्ध हो जायँ, इसमें आश्चर्य ही क्या? परन्तु इससे ज्ञान की न्यूनता नहीं होती। क्योंकि ज्ञान और ज्ञानी श्रीभक्ति महारानी को सदा पूजें, इसी में तो उनकी बड़ाई है। योग्य पुत्र का यही कर्तव्य है। ऐसे ही पुत्र से पुत्रवती युवती धन्य होती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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