भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
ज्ञान और भक्ति
अतः उसके द्वारा पूर्णरूप से अपरिमितानन्द की अनुभूति नहीं होती। दिव्यलीलाशक्ति के योग से कहीं अधिक रस की अनुभूति होती है। इसके सिवा रागानुगाप्रीति के लिये सगुणब्रह्म की उपासना की जाती है। इसीलिये मुक्ति आदि से निरपेक्ष होकर, जीवन्मुक्त लोग भगवान के सगुणरूप में प्रेम करते हैं-
आत्माराम एवं चित्ग्रन्थि जिनकी छूट गयी है, ऐसे मुनि भी उरुक्रम भगवान में अहैतुकी भक्ति करते हैं। कृतकृत्य, पूर्णकाम, आप्तकाम, परम निष्काम होने पर भी भगवान के अद्भुतगुणों के प्रभाव से भगवान में आकर्षित होते हैं। यद्यपि पूर्णकाम की भक्ति में प्रवृत्ति अनुचित ही जान पड़ती है, तथापि भगवान के अद्भुतगुण ही इस अनौचित्य का समाधान करते हैं। “त्रिपुर-सुन्दरीरहस्य” में अद्वैतवादी ज्ञानी को भक्ति का प्रकार बतलाया गया है। ‘यत्सुभक्तैरतिशयप्रीत्या कैतववर्जनात्, स्वभावस्य स्वरसतो ज्ञात्वाऽपि स्वाद्वयं पदम्। विभेदभावमाहृत्य सेव्यतेऽत्यन्ततत्परैः।’ सुभक्त ज्ञानी लोग फलानुसंधानरूप कैतव (कपट) से वर्जित होकर, परमतत्त्व की आराधना करते हैं। अज्ञानी के लिये तो किसी न किसी फल की कामना रहती ही है। यहाँ प्रश्न होता है कि जब प्रयोजन बिना मन्द की भी प्रवृति नहीं होती, फिर कृतकृत्य, जीवन्मुक्त सगुण भगवान के भजन में क्यों लगेगा? इसका उत्तर है, ‘स्वभावस्य स्वरसतः’ अर्थात उसका भोजन करने का स्वभाव पड़ जाता है। 'स्वभावो भजनं हरे:' स्वभाव से ही अद्वैततत्त्व जानकर भी, आहार्य द्वैत से प्रीति पूर्वक ज्ञानी तत्परता से भगवान का भजन करता है- “पारमार्थिकमद्वैतं द्वैतं भजन-हेतवे, तादृशी यदि भक्तिः स्यात् सा तु मुक्तिशताधिका।” पारमार्थिक अद्वैत और भजन के लिये द्वैत, बस इस भावना से जो भक्ति है वह तो मुक्ति से भी बढ़कर है। “द्वैतं मोहाय बोधात् प्राक् जाते बोधे मनीषया। भक्त्यर्थ कल्पितं द्वैतमद्वैतादपि सुन्दरम्॥” अद्वैत तत्त्वसाक्षात्कार के पहले, द्वैत केवल मोह के लिये है, परंतु तत्त्वबोध के उपरांत भक्ति के लिये जो द्वैत है, वह तो अद्वैत से भी सुन्दर है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज