भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
अवतारमीमांसा
यदि निराकारता आकाररूप से परिणाम को प्राप्त हो सके और भगवत्ता भी सुरक्षित रहे, तो निराकारता को भगवत्स्वरूप के प्रति नित्य और स्वरूपगत रूप से नहीं माना जा सकता। फिर तो उसके स्वरूप का प्रकार कोई अनित्य और विकारी ही होगा। अनन्त होकर भी अन्तवाले रूप में परिणाम को प्राप्त हो सकता है। नित्य स्वरूप अचिरकाल स्थायी पुरुषरूप में जन्म ग्रहण कर सकता है और साथ ही अपने नित्य स्वरूप को भी अक्षुण्ण बनाये रख सकता है। पूर्ण पुरुष अपूर्ण पुरुष का जीवन यापन कर सकता है फिर भी अपने पूर्ण स्वरूप में ही स्थिर रह सकता है। ऐसी धारणाएँ स्पष्ट विरुद्ध है। इस पर कहना यही है कि परमेश्वर का पारमार्थिक रूप अज, अव्यक्त, अनन्त, अनाकार, पूर्ण होने पर भी अनिर्वचनीय माया से उसमें साकारता, अपूर्णता की प्रतीति होती है। वस्तुतः वह अपने पारमार्थिक रूप में सर्वदा ही प्रतिष्ठित करते हैं। यह नियम है कि समान सत्तावाले भाव-अभाव का ही विरोध होता है, विषम सत्तावाले भाव-अभाव का विरोध नहीं होता। अतः पारमार्थिक एवं व्यावहारिक सत्ता के भेद से साकारता-निराकारता, अनन्तता और एकदेशिता का सामंजस्य हो सकता है। इसके अतिरिक्त जैसे नैयायिक, वैशेषिकों के यहाँ देहदृष्टि से साकारता होने पर भी आत्माओं की व्यापकता है, वैसे ही यह भी व्यवस्था बैठ सकती है। आत्मा व्यापक माना जाय तो, अणु माना जाय तो, हर दृष्टि से निराकार ही है। फिर भी जैसे उसका साकार देह बन सकता है, वैसे ही निराकार परमेश्वर में भी साकारता आदि बन सकती है। फिर भी जैसे अपने रूप से आत्मा का परिणाम नहीं मानना पड़ता, वैसे ही ईश्वर का भी परिणाम नहीं मानना पड़ेगा। भेद यही है कि जीवात्मा कर्मों के परतन्त्र होकर उसमें अभिमानी होकर फँसता है और परमेश्वर लोकानुग्रहार्थं दिव्य देह ग्रहण करके कार्य करता है, फिर भी अपने निराकार स्वरूप में सर्वदा प्रतिष्ठित रहता है। अपरिच्छिन्न में परिच्छिन्नता आदि भी माया को लेकर बन सकती है। परन्तु स्वरूपच्युति न होगी, यही उसकी विशेषता है। कहा जाता है कि “भगवान् प्रत्येक विशेष अवतार में स्वयं सम्पूर्ण रूप से परिणाम को प्राप्त होते हैं या आंशिक रूप से? यदि प्रथम कल्प मान्य है, तब तो यह भी मानना पड़ेगा कि एक अवतार जब तक जीवित रहता है, तब तक निराकार भगवान नहीं रहता और भगवान जगत के एक विशेष स्थल में आबद्ध रहता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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