भक्ति सुधा -करपात्री महाराज पृ. 248

भक्ति सुधा -करपात्री महाराज

अवतारमीमांसा

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यदि निराकारता आकाररूप से परिणाम को प्राप्त हो सके और भगवत्ता भी सुरक्षित रहे, तो निराकारता को भगवत्स्वरूप के प्रति नित्य और स्वरूपगत रूप से नहीं माना जा सकता। फिर तो उसके स्वरूप का प्रकार कोई अनित्य और विकारी ही होगा। अनन्त होकर भी अन्तवाले रूप में परिणाम को प्राप्त हो सकता है। नित्य स्वरूप अचिरकाल स्थायी पुरुषरूप में जन्म ग्रहण कर सकता है और साथ ही अपने नित्य स्वरूप को भी अक्षुण्ण बनाये रख सकता है। पूर्ण पुरुष अपूर्ण पुरुष का जीवन यापन कर सकता है फिर भी अपने पूर्ण स्वरूप में ही स्थिर रह सकता है। ऐसी धारणाएँ स्पष्ट विरुद्ध है। इस पर कहना यही है कि परमेश्वर का पारमार्थिक रूप अज, अव्यक्त, अनन्त, अनाकार, पूर्ण होने पर भी अनिर्वचनीय माया से उसमें साकारता, अपूर्णता की प्रतीति होती है।

वस्तुतः वह अपने पारमार्थिक रूप में सर्वदा ही प्रतिष्ठित करते हैं। यह नियम है कि समान सत्तावाले भाव-अभाव का ही विरोध होता है, विषम सत्तावाले भाव-अभाव का विरोध नहीं होता। अतः पारमार्थिक एवं व्यावहारिक सत्ता के भेद से साकारता-निराकारता, अनन्तता और एकदेशिता का सामंजस्य हो सकता है। इसके अतिरिक्त जैसे नैयायिक, वैशेषिकों के यहाँ देहदृष्टि से साकारता होने पर भी आत्माओं की व्यापकता है, वैसे ही यह भी व्यवस्था बैठ सकती है। आत्मा व्यापक माना जाय तो, अणु माना जाय तो, हर दृष्टि से निराकार ही है। फिर भी जैसे उसका साकार देह बन सकता है, वैसे ही निराकार परमेश्वर में भी साकारता आदि बन सकती है। फिर भी जैसे अपने रूप से आत्मा का परिणाम नहीं मानना पड़ता, वैसे ही ईश्वर का भी परिणाम नहीं मानना पड़ेगा।

भेद यही है कि जीवात्मा कर्मों के परतन्त्र होकर उसमें अभिमानी होकर फँसता है और परमेश्वर लोकानुग्रहार्थं दिव्य देह ग्रहण करके कार्य करता है, फिर भी अपने निराकार स्वरूप में सर्वदा प्रतिष्ठित रहता है। अपरिच्छिन्न में परिच्छिन्नता आदि भी माया को लेकर बन सकती है। परन्तु स्वरूपच्युति न होगी, यही उसकी विशेषता है। कहा जाता है कि “भगवान् प्रत्येक विशेष अवतार में स्वयं सम्पूर्ण रूप से परिणाम को प्राप्त होते हैं या आंशिक रूप से? यदि प्रथम कल्प मान्य है, तब तो यह भी मानना पड़ेगा कि एक अवतार जब तक जीवित रहता है, तब तक निराकार भगवान नहीं रहता और भगवान जगत के एक विशेष स्थल में आबद्ध रहता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
1. भगवत्प्राप्ति 1
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3. इष्टदेव की उपासना 8
4. मानसी-आराधना 20
5. सगुणोपासना में सरलता 24
6. संकल्पबल 28
7. श्री शिवतत्व 48
8. शिव से शिक्षा 60
9. शिवलिंगोपासना-रहस्य 63
10. श्री विष्णु-तत्त्व 88
11. गायत्री-तत्त्व 97
12. श्री भगवती-तत्त्व 102
13. बुद्धावतार का प्रयोजन 178
14. गजेन्द्र-मुक्ति 182
15. शक्ति का स्वरूप 188
16. माँ के चरणों में 194
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18. गणपति तत्त्व 235
19. अवतारमीमांसा 247
20. निराकार से साकार 255
21. भगवदवतार का प्रयोजन 275
22. भारत ही में अवतार क्यों? 281
23. ज्ञान और भक्ति 287
24. भक्तिरसामृतास्वादन 327
25. अव्यभिचार भक्तियोग 352
26. सबसे सगे भगवान 360
27. चतुर्विधा भजन्ते 363
28. भगवच्छरणागति से ही गति 367
29. भगवान का अवलम्बन अनिवार्य 372
30. प्रेमतत्त्व 375
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32. भगवत्कथामृत 390
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35. करुणालहरी 408
36. श्रीरामजन्म-रहस्य 411
37. श्री रामभद्र का ध्यान 415
38. श्रीकृष्ण-जन्म 422
39. भगवान का मंगलमय स्वरूप 428
40. विभीषण-शरणागति 450
41. श्रीकृष्ण बालक्रीड़ा 469
42. साक्षान्मन्मथमन्मथः 486
43. श्रीवृन्दावन में वर्षा और शरत 507
44. वेणुरव 512
45. किरातिनियों का स्मररोग 517
46. वेणुगीत 525
47. चीरहरण 691
48. वेदान्त-रससार 730
49. निर्गुण या सगुण? 781
50. व्रज-भूमि 797
51. सर्वसिद्धान्त-समन्वय 808
52. क्या ईश्वर और धर्म बिना काम चलेगा? 839
53. श्रीरासलीलारहस्य 854
54. श्री रासपञ्चाध्यायी 1142

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