भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
इष्टदेव की उपासना
समझदार तो यही कहेंगे कि उन मार्गानुगामियों मे से अधिक विश्वास उन्हीं पर किया जा सकता है, जो अपने राष्ट्र, प्रान्त, नगर तथा ग्राम के हों या अपने कुटुम्बियो में से हों। यह बात दूसरी है कि जब बहुत विशिष्ट अनुभवों से उस मार्ग के दूषित तथा मार्गान्तर के निर्विघ्न होने की बात निश्चित हो गयी हो, तब किसी दूसरे मार्ग का अवलम्बन किया जाय। इसलिए भी अपनी पितृ-पिताह-परम्परा में जो उपासना और आचार तथा शास्त्र मान्य हों, वही उचित है। वेद ने भ ‘‘किस्विव् पुत्रेभ्यः पितरावुपावतः’’ इस वाक्य से परम्परागत आचार का समर्थन किया है। श्रीनीलकण्ठजी ने इसका यही अभिप्राय बतलाया है कि पुत्र के हित के लिए माता, पिता या पितामह प्रभूति ने जिस व्रत का पालन या जिस देवता की उपासना किया हो, उस पुत्र के लिए उसी व्रत या देवता का अवलम्बन करना चाहिए। ऐसे ही सम्प्रदाय भेद से भस्म, गोपीचन्दन आदि की भी व्यवस्था बतायी गयी है। उसमें भी यह व्यवस्था शुद्ध शास्त्रीय है कि स्नान करके मृत्तिका और होम करके भस्म और देवपूजन के पश्चात चन्दन आदि लगाया जाय, क्योंकि भस्म वैदिकों के लिए किसी अवस्था में त्याज्य नहीं हो सकता। यहाँ कोई प्रश्न कर सकता है कि यद्यपि इस तरह से किसी भी देवता की आराधना, भस्म, रुद्राक्ष, गोपीचन्दनादि का धारण संगत मालूम होता है तथापि साम्प्रदायिक लोगों की बातें सुनकर तो जी घबराता है। कोई शिव जी के तथा भस्म-रुद्राक्ष के निन्दन में सहस्रों वचन उपस्थित करते हैं, तो कोई विष्णु तथा गोपीचन्दनादि के निन्दन में सहस्रों वचन देते हैं। इसका क्या आशय है? उनको यही उत्तर दिया जा सकता है कि कुछ वचन तो निन्दा में तात्पर्य न रखकर एक की स्तुति मे ही रखते हैं। जैसे शैवों की शिव में निष्ठा दृढ़ करने के लिए विष्णु के निन्दा-सूचक और विष्णु में निष्ठा दृढ़ करने के लिए शिव के निन्दापरक वचन कहे जो सकते हैं। परन्तु कुछ ऐसे भी वचन हैं, जिनका सिवा राग-द्वेष के और कोई मूल ही नहीं हो सकता। बहुत से पुराण साम्प्रदायिकों के कलहों में बिगाड़े गये हैं। इसीलिए तो गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं-
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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