भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री भगवती-तत्त्व
चण्डिका ने उसे पाश से बाँधा, तो वह सिंह हो गया। जब तक सिंह का सिर काटने का चण्डिका प्रयत्न करती है, तब तक वह खड्गपाणि परुष हो गया। जब तक पुरुष अम्बा प्रहार करती, तब तक वह गज हो गया। गज होकर सिंह को शुण्डा से आकृष्ट करने लगा। देवी न तलवार से शुण्डा काट दी। पश्चात वह फिर महिष बनकर त्रैलोक्य को त्रस्त करने लगा। अन्त में देवी ने उछलकर उसके ऊपर आरूढ़ होकर उसे चरण से आक्रान्त कर शूल से ताड़न किया। इतने में वह महिष के मुख से अर्धनिष्क्रान्त असुर के रूप में लडने लगा। अन्त मे अम्बा ने विशाल खड्ग से उसका सिर काट दिया। असुरसैन्यस मे हाहाकर मच गया। देवतागण बड़े प्रसन्न हुए। देवताओं ने वही श्रद्धा से नम्र होकर इस तरह स्तुति की - ‘‘हे मां! आप जगदात्म शक्ति हैं, आपसे सम्पूर्ण विश्व व्याप्त है, आप सब देवताओं की शक्तिसमूह मूर्ति है। आपके प्रभाव को विष्णु, ब्रह्मा तथा हर भी नहीं कह सकते, फिर और की तो बात ही क्या? आप ही सुकृतियों के घरों में लक्ष्मी तथा पापियों के घर में दरिद्र रूप से रहती हैं। कृतबुद्धियों के हृदय मे सुबुद्धि एवं कुलांगनाओं की लज्जा भी आप ही हैं, आप ही अव्याकृताख्या प्रकृति हैं, आप ही स्वाहा, स्वधारूप से देव, पितर आदि को तृप्त करती हैं। मोक्षार्थी यति लोग भी ब्रह्मविद्यारूप से आपका ही सेवन करते हैं विश्व को अभ्युदय-निःश्रेयय प्राप्त करने के लिये आप ही वेदत्रयी के रूप में प्रकट होती हैं। विष्णु के हृदय में महालक्ष्मी रूप से, शशिमौलि के यहाँ गौरीरूप से आप ही प्रतिष्ठित है। बहुत स्तुति करके देवताओं न देवी से अनेक वर की प्रार्थना की। माता ‘तथास्तु’ कहकर अन्तर्हित हो गयी। कुछ लोग निरवयव, निर्विकार परमानन्द का ही अवयवावयविभाव वास्तविक ही मानते हैं। परन्तु ‘‘निर्युक्तिकं ब्रुवाणश्च नास्माभिर्विनिवार्यते’’ इस न्याय से उनके लिये हम कुछ कहना नहीं चाहते। यिदि ऐसा सम्भव हो, तो रहे। श्रीशंकरानन्द जी का इस विषय में कहना है कि यद्यपि ‘‘कर्मणा जायते जन्तुः कर्मणैव प्रलीयते’’ इस वचन के अनुसार कर्मों से ही प्राणी का जन्म और विनाश होता है, परमेश्वर में जन्म हेतु पुण्य-पाप नह होने से जन्म असम्भव है, तथापि मायाद्वारा परमेश्वर का जन्म असम्भव नहीं, अत: अज, अव्यय, निरवयव होने पर भी भगवान का जन्म माया से हो जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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