भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री भगवती-तत्त्व
किसी समय वही महालक्ष्मी के रूप में प्रकट होती है। कभी पूरे सौ वर्ष तक देवताओं और असुरों का भयानक संग्राम चल रहा था। असुरों का राजा महिषासुर और देवताओं का इन्द्र था। महिषासुर सब देवताओं को जीतकर स्वयं इन्द्र हो गया। देवता लोग पराजित होकर ब्रह्मा को लेकर शिव और विष्णु के पास गये और विस्तार से महिषासुर की विजय और देवताओं की पराजय बतलायी। देवताओं की बात सुनकर मधुसूदन और शंकर दोनों ने कोप किया और उनके मुख से एक महातेज प्रकट हुआ। ब्रह्मा के भी मुख से वैसा ही तेज निकला। इन्द्र, वरुणादि देवताओं के भी देह से दिव्य तेज प्रकट हुआ। इस तरह सब देवताओं के देह से निकलकर वही महातेज पर्वत के समान दिखलायी पड़ने लगा और उसकी ज्वाला से दिशाएँ-विदिशाएँ सब व्याप्त हो गयीं। वही अतुल तेज एकत्रित होकर एक स्त्री के रूप में परिणत हो गया। उस तेज की दिव्यदीप्ति तीनों लोक में फैल गयी। समस्त देवताओं के तेज से उस तेज के अन्यान्य अंग उत्पन्न हुए। समस्त देवताओं की तेजोराशि से अद्भुत भगवती को देखकर प्रसन्न हुए। सब देवो ने विभिन्न आयुध तथा आभूषण उसे प्रदान किया। सबने माता का सम्मान किया। मां प्रसन्न होकर सिंहनाद करने लगीं। उसके घोर नाद से सम्पूर्ण नभ पूर्ण हो गया और उसकी प्रतिध्वनि से सब लोक क्षुब्ध हो गये और समुद्र काँप उठे। देवता प्रसन्नता से जयजयरव करने लगे, मुनि लोग स्तुति करने लगे। ऐसी स्थिति देखकर असुर लोग अस्त्र-शस्त्र लेकर युद्ध के लिये तत्पर हो गये। अनेक असुरों से समावृत महिषासुर ने देखा कि तीनों लोकों को अपने महातेज से व्याप्त करके पादाक्रमण से पृथ्वी को विनत करती हुई, अपने किरीट से नभोमण्डल को खचित करती हुई, धनुष के टंकार से पाताल तक को क्षुब्ध करने वाली सहस्रों भुजाओं से दिशाओं के व्याप्त करके देवी स्थित है। बस फिर क्या था? असुरों ने युद्ध प्रारम्भ कर दिया। भयानक संग्राम हुआ, गिरे हुए हस्ति, अश्व रथ एवं असुरों से वह भूमि आगम्य हो गयी। शोणित की भयानक नदी बहने लगी। अन्त में बडे-बड़े अस्त्र-शस्त्र, शक्ति आदि के प्रयोग हुए। बहुतों को हुंकारमात्र से भगवती नष्ट कर देती थी। देवी के सिंह ने विचित्र युद्ध करके चामर प्रभृति दैत्यों को मारा। बहुत दैत्यों के मारे जाने पर स्वयं महिषासुर ने महिषरूप से अद्भुत पराक्रम दिखलाया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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