भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री भगवती-तत्त्व
ब्रह्मा को देखकर उन्होंने कहा- ‘‘हम तुम्हे मारेंगे। अगर तुम जीना चाहते हो, तो विष्णु को जगाओ।’’ यह सुनकर ब्रह्मा ने जगत्प्रसूयोगनिद्रा की अनेक स्तुतियों से प्रार्थना की। भगवती ने प्रसन्न होकर ब्रह्मा से वरदान माँगने को कहा। ब्रह्मा ने भगवान का जागना और दोनों असुरों को मोह होना माँगा। माता ने विष्णु को जगा दिया। विष्णु से उन दैत्यों का पाँच हजार वर्ष तक घोर यद्ध हुआ। महाप्रमत्त उन दैत्यों ने महामाया से मोहित होकर विष्णु से वर माँगने को कहा। विष्णु ने कहा- ‘‘तुम दोनों हमारे वध्य हो, हम यही वर माँगते हैं।’’ उन्होंने कहा- ‘‘अच्छा, जहाँ सलिल से व्याप्त पृथ्वी न हो, वहाँ हमें मारो।’’ विष्णु ने अपने जघन प्रदेश पर उनका शिर रखकर चक्र से उन्हे मार दिया, पश्चात उन्हीं के भेद का विलेपन कर पृथ्वी को दृढ़ किया गया, इसीलिये पृथ्वी को ‘मोदिनी’ भी कहा जाता है। इस तरह भगवती ही अपने रूप में प्रकट होकर जगत को धारण करती है। यही सृष्टि, स्थिति ,संहार करती हैं, यही योगनिद्रा होकर विष्णु को विश्राम देती है, यही स्वाहारूप से देवताओं को, स्वाधरूप से पितरों को, वषट्काररूप से श्रौतदेवताओं को तृप्त करती है। यही उदात्तादि स्वरों और सुधारूप से विराजमान होती हे। ह्रस्व, दीर्घ, प्लुतरूप में किंवा अ, उ, म् रूप में यही अक्षररूपा भगवती विराजमान होती है। अ, उ, म्, इन तीनो वर्णों एवं तद्वाच्य विश्व, तैजस, प्राज्ञ आदि के रूपों में भी वही भगवती स्थित है। वाच्य-वाचक के अधिष्ठानरूप अर्धमात्रास्वरूप से भी भगवती ही विराजामान है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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